लाइफ कॉचिंग एक सम्मानजनक पेशा है। गाइडेंस और कॉंसलिंग आज समाज की आवश्यकता बन गया है। लोगों में हजारों तरह की आस्था होती है जिनके सहारे वे अपना जीवन जीते हैं। जितना बन पड़ता है वे वैज्ञानिक तरीकों से निर्णय लेने की कोशिश करते हैं। परंतु आज का तेजी से बदलता सामाजिक पर्यावरण न आस्थाओं को टिकने दे रहा है और ना कोई वैज्ञानिक प्रणाली मददगार साबित हो रही है। सूचनाओं के इस विराट जंजाल में किसी भी युवा को एक सहायक की आवश्यकता हो सकती है। लाइफ कॉच, गाइड या कॉंसलर के रूप में जो इस फील्ड में कैरियर बनाना चाहता है उनको ट्रेनिंग देना हमारा कार्यक्षेत्र है। यह इक्कीसवीं सदी मनोविज्ञान की सदी है। जो इस विषय को जितनी जल्दी अपना लेगा वह समाज में उतनी ही जल्दी अपनी सार्थक भूमिका निभाना आरम्भ कर देगा।http://supportinghands.blogspot.in/2014/ 05/ support-movement-psychology-is-subject.ht ml सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
(Authorized & Affiliated with A unit under Dept. of Sc. & Tech., Govt. of India)
लाइफ कॉचिंग व्यवसाय में कैरियर बनाने का यह सही समय है...
मार्गदर्शन और परामर्श
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आप कौन हैं?
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अपने बारे में आप क्या जानते हैं?
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आप कैसा अनुभव कर रहे हैं?
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आपके पास शक्तियाँ क्या है?
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आपकी कमजोरियाँ क्या है?
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क्या आप खुश हैं?
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क्या आप अपनी अनचाही आदतों के कारण घुटन का अनुभव कर रहे
हैं?
·
आप जैसा बनना चाहते हैं वैसे बन रहे हैं या कोई और जैसा
चाह्ते हैं वैसा बन रहे हैं?
क्या
आपको ये प्रश्न परेशान करते हैं? क्या आप अपने को जितना समझते हैं उससे अधिक जानना
चाहते हैं? जिससे आप वह अधिकतम कर सकें जिसके लिए आपको प्रकृति ने चुना है? क्या
आप इसके लिए पहला कदम उठाना चाहते हैं? इसके लिए आपको अपने अनोखे होने को समझना
होगा। आपको अपने अतीत, अपनी शक्तियाँ, अपनी कमजोरियाँ और स्वयं की इच्छाओं को
पहचानना होगा।
ह्म में
से ज्यादातर मित्र अपने को वैसा जानते हैं जैसा कि दूसरों ने उनको बताया है।
ज्यादातर मित्र अपने परिचय में वह बताते हैं जो उन्होंने अपने घर, समाज से सुना
है। वे अपने बारे में अपनी आंतरिक आकाँक्षाओं से परिचय नही कराते। ज्यादातर लोग
बताते हैं अपना हूनर, शिक्षा, घराना आदि। क्या जीवन इतना ही है जो आपको दूसरे के
लगातार प्रयासों से मिला है? क्या आपकी अपनी आकाँक्षा, सपने, रुचि सब आपने भुला
दिया? या उम्र बढ़ने के साथ खोते जा रहे हो? क्या आप केवल इस बात से आनन्द मनाते हो
कि आपने क्या उपलब्धियाँ पाई, सफलता किसमें मिली। क्या आत्मसम्मान, आंतरिक आनन्द
और संतुष्टि के आधार पर आप अपने जीवन का माप नही करते? कुछ जानकारियों के अलावा,
कुछ हूनर के अलावा क्या आप का अपना कोई और अस्तित्व नही है?
क्या आप
बदलाव चाहते हैं? तो समझें कि आपके आंतरिक जीवन और बाह्य परिचय में संतुलन कैसे
बनाया जा सकता है। समाज ने आपको केवल यह सिखाया है कि आप समाज के लिए कैसे फिट हो
सकते हो। आप अपने अनुकूल समाज का निर्माण भले ही ना कर सकें पर अपने अनुकूल
सामाजिक वातावरण की तलाश तो कर ही सकते हो। नीचे बने चक्र में आपके जीवन के
विभिन्न पहलुओं को दर्शाया गया है। आप इन पहलुओं पर अपना पक्ष लिखें। जब डाक
द्वारा या ईमेल से आपका सन्देश हमें मिलेगा तो आधे घण्टे का फ्री परामर्श चैटिंग
द्वारा दिया जाएगा। इस में यह सम्भावना तलाशी जाएगी कि आप क्या हो सकते हैं और
क्या पा सकते हैं।
इस चक्र
में आप स्वयं को मानें और इसके दांते आपके जीवन के विभिन्न पहलू है। आप प्रत्येक
पहलू पर सफलता और संतुष्टि के लिए 1 से 10 के बीच अंक दें। जितने अधिक संतुष्ट हैं
आप उस शीर्षक को उतने ही अधिक अंक दें।
आप किस
पहलू पर अपने को सबसे अधिक कमजोर पाते हैं? उसमें किस तरह के बदलाव आप चाहते हैं व
लिख कर भेजें।
इस चक्र में वह पहलू रेखाँकित करें जहाँ आजकल आपका अधिकतम
समय, ऊर्जा, धन आदि खर्च रहा है।
आप इसमें अपनी आवश्यकता के अनुरूप बदलाव
भी कर सकते हैं। तीन प्रकार के संकेत हर पहलू पर लिखें 1. आप उस पहलू पर कितने
संतुष्ट हैं? अधिकतम तृप्ति पर अधिकतम अंक दें। असंतुष्ट हैं तो कम से कम अंक दें।
2. आप उस पहलू पर किस प्रकारे के परिवर्तन चाहते हैं वह स्पष्ट लिखें। 3. आप
अधिकतम समय आप किस पहलू पर बिताने के लिए मजबूर हैं और किस पर अपना समय बिताने की
खुशी होगी?
यह एक व्यक्तिगत निमंत्रण भी है और उन लोगों के लिए सन्देश भी है कि अगर आप लाइफ कॉच के रूप में कैरियर अपनाते हैं तो किस प्रकार के कार्य करने होंगे... सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
यह एक व्यक्तिगत निमंत्रण भी है और उन लोगों के लिए सन्देश भी है कि अगर आप लाइफ कॉच के रूप में कैरियर अपनाते हैं तो किस प्रकार के कार्य करने होंगे... सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Do you want to be a real teacher?
" शिक्षक की भूमिका "
शिक्षक
बुनियादी रुप से इस जगत में सबसे बड़ा विद्रोही व्यक्ति होना चाहिए । तब वह पीढ़ियों
को आगे ले जायेगा । और शिक्षक सबसे बड़ा दकियानूस है, सबसे बड़ा ट्रेडीशनलिस्ट वही है, वही दोहराये जाता है पुराने कचरे को
। क्रांति शिक्षक में होती नहीं है । आपने सुना है कि कोई शिक्षक क्रांतिपूर्ण हो ? शिक्षक सबसे ज्यादा दकियानूस, सबसे ज्यादा आर्थोडॉक्स है, इसलिए शिक्षक सबसे खतरनाक है । समाज
उससे हित नहीं पाता है अहित पाता है ।
शिक्षक होना चाहिए विद्रोही.......
कौन-सा विद्रोही ?
कौन-सा विद्रोही ?
मकान में आग लगा दें आप, या कुछ और कर दें या जाकर ट्रेन उलट
दें या बसों में आग लगा दें, मैं
उनको नहीं कह रहा हूँ, गलती
से वैसा न समझ लें।
मैं कह रहा हूँ कि हमारी जो वैल्यूज हैं उनके बाबत विद्रोह
का रुख, विचार
का रुख होना चाहिए कि यह मामला क्या है ।
जब आप एक बच्चे को कहते हैं कि तुम गधे हो तुम नासमझ हो, तुम बुद्धिहीन हो, देखो उस दूसरे को, वह कितना आगे है, तब आप विचार करें कि यह
कितने दूर तक ठीक है और कितने दूर तक सच है ।
क्या दुनिया में दो आदमी एक जैसे हो सकते हैं ?
क्या यह संभव है कि जिसको आप गधा कह रहे हैं वह वैसा हो जायेगा जैसा कि आगे खड़ा है ?
क्या यह आज तक संभव है ?
क्या यह संभव है कि जिसको आप गधा कह रहे हैं वह वैसा हो जायेगा जैसा कि आगे खड़ा है ?
क्या यह आज तक संभव है ?
हर आदमी जैसा है, अपने जैसा है, दूसरे आदमी से कंपेरीजन का
कोई सवाल ही नहीं। किसी दूसरे आदमी से उसकी कोई कंपेरीजन नहीं उसकी कोई तुलना नही।
एक छोटा कंकड़ है, वह छोटा कंकड़ है, एक बड़ा कंकड़ है, वह बड़ा कंकड़ है, एक छोटा पौधा है, वह छोटा पौधा है, एक बड़ा पौधा है, वह बड़ा पौधा है ! एक घास
का फूल है, वह
घास का फूल है, एक
गुलाब का फूल है, वह
गुलाब का फूल है ! प्रकृति का जहां तक संबंध है, घास के फूल पर प्रकृति नाराज नहीं है
और गुलाब के फूल पर प्रसन्न नहीं है । घास के फूल को भी प्राण देती है उतनी खुशी
से जितनी गुलाब के फूल को देती है।
और मनुष्य को हटा दें तो घास के फूल और गुलाब के फूल में
कौन छोटा कौन बड़ा है ? कोई
छोटा और बड़ा नहीं है ! घास का तिनका और बड़ा भरी चीड़ का दरख्त तो यह महान है और घास
का तिनका छोटा है ? तो
परमात्मा कभी का घास के तिनके को समाप्त कर देता और चीड़-चीड़ के दरख्त रह जाते
दुनिया में ! नहीं लेकिन आदमी की वैल्यूज गलत हैं।
यह आप स्मरण रखें कि इस संबंध में मैं आपसे कुछ गहरी बात
कहने का विचार रखता हूं। वह यह कि जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से
कंपेयर करेंगे तब तक हम गलत रास्ते पर चलते रहेंगे। वह गलत रास्ता यह होगा कि हम
हर आदमी में दूसरे आदमी जैसा बनने कि इच्छा पैदा करते हैं, जब कि कोई आदमी न तो दूसरे
जैसा बना है और न बन सकता है ।
राम को मरे कितने दिन हो गये, या क्राइस्ट को मरे कितने दिन हो गये, दूसरा क्राइस्ट क्यों नहीं
बन पाता और हजारो हजारो क्रिश्चियन कोशिश में तो चौबीस घंटे लगे हैं कि क्राइस्ट
बन जायें। हजारों राम बनने की कोशिश में हैं, हजारों जैन महावीर, बुद्ध बनने की कोशिश में
हैं, लेकिन
बनते क्यों नहीं एकाध ? एकाध
दूसरा क्राइस्ट और दूसरा महावीर क्यों नहीं पैदा होता ? क्या इससे आंख नहीं खुल
सकती आपकी ?
मैं रामलीला के रामों की बात नहीं कह रहा हूं, जो रामलीला में बनते हैं
राम । न आप यह समझ लें कि उनकी चर्चा कर रह हूं। वैसे तो कई लोग राम बन जाते हैं, कई लोग बुद्ध जैसे कपडे
लपेट लेते हैं और बुद्ध बन जाते हैं । कई लोग महावीर जैसा कपड़ा लपेट लेते हैं या
नंगा हो जाते हैं और महावीर बन जाते हैं । मैं उनकी बात नहीं कर रहा। वे सब
रामलीला के राम हैं, उनको
छोड़ दें।
लेकिन राम कोई दूसरा पैदा होता है ? यह आपको ज़िन्दगी में भी
पता चलता है कि ठीक एक आदमी जैसा दूसरा आदमी कोई हो सकता है ? एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़
भी पूरी पृथ्वी पर खोजना कठिन है-यहां हर चीज यूनिक है और हर चीज अद्वितीय है ।
और जब तक हम प्रत्येक कि अद्वितीय प्रतिभा को सम्मान नहीं
देंगे तब तक दुनिया में प्रतियोगिता, रहेगी प्रतिस्पर्धा रहेगी, तब तक मारकाट रहेगी, तब तक दुनिया में हिंसा
रहेगी, तब
तक दुनिया में सब बेईमानी के उपाय से आदमी आगे होना चाहेगा, दूसरे जैसा होना चाहेगा ।
जब हर आदमी दूसरे जैसा होना चाहता है तो क्या होता है ?
फल यह होता है अगर एक बगीचे में सब फूलों का दिमाग फिर जाये
या बड़े बड़े शिक्षक वहां पहुंच जायें और उनको समझायें कि देखो चमेली का फूल चंपा
जैसा हो जाये, और
चंपा का फूल जूही जैसा, क्योंकि
देखो जूही कितनी सुंदर है, और
सब फूलों में पागलपन आ जाए, और
चंपा का फूल जूही जैसा, क्योंकि
देखो, जूही
कितनी सुंदर है, और
सब फूलों में पागलपन आ जाए, हालांकि
आ नहीं सकता ! क्योंकि आदमी से पागल - फूल नहीं है। आदमी से ज्यादा जड़ता उनमें
नहीं है कि वे चक्कर में पड जायें।
शिक्षकों के उपदेशकों के, संन्यासियों के आदर्शवादियों के, साधुओं के चक्कर में कोई
फूल नहीं पड़ेगा । लेकिन फिर भी समझ लें और कल्पना कर लें कि कोई आदमी जाये और
समझाए उनको तथा वे चक्कर में आ जायें और चमेली का फूल चंपा का फूल होने लगे तो
क्या होगा उस बगिया में ?
उस बगिया में फूल फिर पैदा नहीं हो सकते, उस बगिया में फिर पौधे
मुरझा जायेंगे । क्यों क्योंकि चंपा लाख उपाय करे तो चमेली तो नहीं हो सकती, वह उसके स्वाभाव में नही
है, वह
उसके व्यक्तित्व में नहीं है, वह उसकी प्रकृति में नहीं है। चमेली तो चंपा हो ही नहीं
सकती।
लेकिन क्या होगा ? चमेली चंपा होन की कोशिश में चमेली
भी नहीं हो पाएगी । वह जो हो सकती थी उससे भी वंचित हो जाएगी ।
मनुष्य के साथ यह दुर्भाग्य हुआ है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य और
अभिशाप जो मनुष्य के साथ हुआ है वह यह कि हर आदमी किसी और जैसा होना चाह रहा है और
कौन सिखा रहा है यह ? यह
षड्यंत्र कौन कर रहा है ?
यह हजार हजार साल से शिक्षा कर रही है। वह कह रही है राम
जैसे बनो, बुद्ध
जैसे बनो यह अगर पुरानी तस्वीर फीकी पड़ गयी, तो गांधी जैसे बनो, विनोबा जैसे बनो।
किसी न किसी जैसा बनो लेकिन अपने जैसा बनने की भूल कभी न
करना क्योंकि तुम तो बेकार पैदा हुए हो। असल में तो गांधी मतलब से पैदा हुए। भगवान
ने भूल की जो आपको पैदा किया। क्योंकि अगर भगवान समझदार होता तो राम और बुद्ध ऐसे
कोई दस पंद्रह आदमी के टाइप पैदा कर देता दुनिया में। या कि बहुत ही समझदार होता, जैसा कि सभी धर्मो के लोग
बहुत ही समझदार होते हैं, तो
फिर एक ही तरह के टाइप पैदा कर देता। फिर क्या होता ?
अगर दुनिया में समझ लें कि तीन अरब राम ही राम हैं तो कितनी
देर चलेगी दुनिया ? पंद्रह
मिनट ने स्युसाइड हो जायेगा । साऱी दुनिया आत्मघात कर लेगी । इतनी बोरडम पैदा होगी
राम ही को देखने से। सब मर जाएगा,
कभी सोचा है ?
सारी दुनिया में गुलाब ही गुलाब के फूल हो जायें और सारे पौधे गुलाब के फूल पैदा करने लगें तो क्या होगा ? फूल देखने लायक भी नहीं रह जायेंगे । उनकी तरफ आंख करने कि भी जरुरत नहीं रह जाएगी । यह व्यर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति का पाना व्यक्तित्व होता है। यह गौरवशाली बात है कि आप किसी दूसरे जैसे नहीं हैं और कंपेरिज़न, कि कोई ऊंचा है कोई नीचा है, नासमझी कि बात है।
सारी दुनिया में गुलाब ही गुलाब के फूल हो जायें और सारे पौधे गुलाब के फूल पैदा करने लगें तो क्या होगा ? फूल देखने लायक भी नहीं रह जायेंगे । उनकी तरफ आंख करने कि भी जरुरत नहीं रह जाएगी । यह व्यर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति का पाना व्यक्तित्व होता है। यह गौरवशाली बात है कि आप किसी दूसरे जैसे नहीं हैं और कंपेरिज़न, कि कोई ऊंचा है कोई नीचा है, नासमझी कि बात है।
कोई ऊंचा और नीचा नहीं है-प्रत्येक है ! प्रत्येक व्यक्ति
अपनी जगह है और प्रत्येक व्यक्ति दूसरा अपनी जगह पर। नीचे ऊंचे की बात गलत है। सब
तरह का वैल्युएशन गलत है। लेकिन हम यह सिखाते रहे हैं।
विद्रोह से मेरा मतलब है, इस तरह की सारी बातों पर विचार, इस तरह की सारी बातों पर
विवेक, इस
तरह की एक एक बात को देखना की मैं क्या सिखा रहा हूं इन बच्चों को। जहर तो नहीं
पिला रहा हूं ?
बड़े प्रेम से भी जहर पिलाया जा सकता है
और बड़े प्रेम से मां-बाप और शिक्षक
जहर पिलाते रहे हैं,
लेकिन यह टूटना चाहिए। “
और बड़े प्रेम से मां-बाप और शिक्षक
जहर पिलाते रहे हैं,
लेकिन यह टूटना चाहिए। “
"Osho"
Future Teachers...
भविष्य का शिक्षक ...
अगर आप ये लाइन पढ़ रहे हैं तो आप शायद जानते हैं कि कम्प्यूटर और इंटरनेट का उपयोग कैसे करते हैं। आप ब्राउजर काम में ले सकते हैं, किसी बताई गई साइट पर जा सकते हैं, अपनी रुचि की कोई साइट ढ़ूँढ सकते हैं। अगर आप काफी समय से ये कर रहे हो तो ये भी जानते हैं कि किसी जरूरत की सामग्री को कैसे डाउनलोड करते हैं। आप पीडीएफ फाइल के बारे में समझते हैं। कभी कोई पीडीएफ फाइल नही खुलती तो आपको पता है कि कम्प्यूटर में एक्रोबेट रीडर नही है। अगर आप शिक्षक हैं तो आप आज के जमाने की कक्षाओं में अपने छात्रों को पढ़ाने में अच्छी रुचि रख रहे होंगे।
अगर आप ये लाइन पढ़ रहे हैं तो आप शायद जानते हैं कि कम्प्यूटर और इंटरनेट का उपयोग कैसे करते हैं। आप ब्राउजर काम में ले सकते हैं, किसी बताई गई साइट पर जा सकते हैं, अपनी रुचि की कोई साइट ढ़ूँढ सकते हैं। अगर आप काफी समय से ये कर रहे हो तो ये भी जानते हैं कि किसी जरूरत की सामग्री को कैसे डाउनलोड करते हैं। आप पीडीएफ फाइल के बारे में समझते हैं। कभी कोई पीडीएफ फाइल नही खुलती तो आपको पता है कि कम्प्यूटर में एक्रोबेट रीडर नही है। अगर आप शिक्षक हैं तो आप आज के जमाने की कक्षाओं में अपने छात्रों को पढ़ाने में अच्छी रुचि रख रहे होंगे।
शिक्षक
प्रशिक्षण कक्षाओं में बी.एड. करने वाले प्रशिक्षुओं को किताबों के जरिये
शिक्षण विधियाँ पढ़ाने से ज्यादा कीमती है कि उनको वह सब सिखाया जाए जो अभी
अभी हमने इस चर्चा के आरम्भ में पढ़ा है। पर ज्यादातर बी.एड. कॉलेजों में इस
तकनीक के प्रशिक्षण के लिए एक पीरियड भी मुश्किल से खर्च किया जा रहा है।
शिक्षक आपस में चर्चा करते हैं कि कक्षा में उनके छात्र तकनीक के मामले में
उनसे कई कदम आगे हैं।
एक शिक्षक के रूप में आपका सामना ऐसे हालातों से अक्सर होता होगा। उस समय आपकी प्रतिक्रिया क्या रहती है? सोचिये...
(भविष्य का छात्र तकनीकी रूप से जितना कुशल हो रहा है क्या कक्षा में शिक्षक उस बच्चे का सामना कर सकेंगे?)
Suresh Kumar Sharma 9929515246
एक शिक्षक के रूप में आपका सामना ऐसे हालातों से अक्सर होता होगा। उस समय आपकी प्रतिक्रिया क्या रहती है? सोचिये...
(भविष्य का छात्र तकनीकी रूप से जितना कुशल हो रहा है क्या कक्षा में शिक्षक उस बच्चे का सामना कर सकेंगे?)
- अगर स्कूल प्रशासन स्कूल का रिकोर्ड कम्प्यूटर पर डालना अनिवार्य कर दे। बच्चों की हाजरी, अंक आदि कम्प्यूटर पर रखने के लिए आपसे सहयोग मांगा जाए तो आप क्या प्रतिक्रिया करेंगे?
- बच्चों को ई मेल से गृहकार्य देने की स्थिति का आप कैसे सामना करेंगे? आपके नाम स्कूल एक ई मेल खोल दे और अनिवार्य कर दे कि आप सभी पत्राचार ई मेल से करेंगे तो क्या आप इसके लिए तैयार हैं?
- आपको अतिरिक्त भुगतान देकर प्रशासन अगर ऑनलाइन शिक्षण और कक्षा शिक्षण की सामग्री बनाने के लिए कहे तो क्या आप ऐसा कर सकते हो? आप ऑन लाइन शिक्षण कर सकोगे?
- देश की शिक्षा नीति में बदलाव कर अनिवार्य कर दिया जाए कि आप को अपने विषय के शिक्षण के लिए बच्चों को सप्ताह में दो दिन कम्प्यूटर प्रयोगशाला में ले जाना अनिवार्य है तो इस हाल में आप उन दो पीरियड का क्या उपयोग करोगे?
- किसी दिन आप को कक्षा में अपने ब्लैकबोर्ड के स्थान पर प्रोजेक्टर बोर्ड मिले तो क्या उस दिन आप बच्चों को पढ़ा पाओगे? (आपको इसका प्रशिक्षण अभी दिया जा चुका था)
- अगर कक्षा में कोई छात्र किसी दिन कहे कि उसने अपना होमवर्क एमपी 3 फोर्मेट में आपको ई मेल कर दिया है तो क्या आप स्टाफरूम में उसका ई मेल चैक कर होमवर्क देख सकोगे?
Suresh Kumar Sharma 9929515246
कौन कहता है कि श्रवण कुमार के माता पिता अन्धे थे?
कौन कहता है कि श्रवण कुमार के माता पिता अन्धे थे?
पौरोणिक कहानियाँ प्रतीकों में लिखे गये सन्देश है। श्रवण कुमार की कहानी अक्सर स्कूलों में छोटे बच्चों को सुनाई जाती है और अपेक्षा की जाती है कि वे अपने माता पिता की वैसी ही सेवा करें जैसे श्रवण कुमार करता था। घरों में बूढ़े मा बाप अक्सर इस कहानी को सुन कर अपने बच्चों पर अंगुली उठाते हैं। जब कहानियों के प्रतीक खो जाते हैं और अपात्र व्यक्ति कहता सुनता है तो वे कहानियाँ असर करना बन्द कर देती है। इस कहानी में जिन माता पिता का उल्लेख किया गया है वह इस जगत के हर माता पिता की कहानी है। माता पिता जब अपना जीवन जी लेते हैं, बच्चों पर जब परिवार का बोझ आ पड़ता है तो इस बीच जमाना इतना तेजी से बदल जाता है कि माता पिता का नजरिया नई पीढ़ी के काम का नही रह जाता है। बच्चों को जो दिखाई देता है वह माता पिता को दिखाई देना बन्द हो जाता है। इसका अर्थ ये नही है कि अब माता पिता व्यर्थ हो गये हैं। उनकी शारीरिक आयु क्षीण होती जा रही होगी पर पुनर्जन्म की धारणा के अनुसार जीवन की सततता के कारण हर क्षण मनुष्य को स्वयं को अनावृत करना है। अब पुत्र माता पिता को ठीक उसी तरह से अपनी दुनिया दिखाए जैसे बचपन में उसके माता पिता ने अपनी दुनिया से परिचय कराया था। जरूरी नही है कि आप तत्काल कहते ही वे बातें समझ जाते थे जो आपके माता पिता आपको कहना चाहते थे। धैर्य पूर्वक उन्होंने आपको उस जगत का परिचय कराया। अब आगे का सफर आप अपने ढ़ंग से कर सकते हैं पर उनको साथ तो रखना चाहिए।
ये तो है कहानी के प्रतीक की व्याख्या। अब प्रश्न ये है कि कौन इस कहानी को कहे सुने कि जिससे इस कहानी का अर्थ तत्काल असर करे? इस कहानी को कोई पुत्र अपने माता पिता के मुख से सुनता है तो इसका कोई असर नही होता। स्कूल में शिक्षक भी ये कहानी बच्चों को सुनाए तो असरकारी नही है। इस कहानी को पत्नि अपने मुख से पति को सुनाए तो ये कहानी सबसे अधिक असरकारी हो सकती है। पत्नि अगर पति का सहयोग करे तो यह कहानी समाज पर अपनी छाप छोड़ सकती है। अन्यथा इस कहानी का होना ही व्यर्थ है।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
पौरोणिक कहानियाँ प्रतीकों में लिखे गये सन्देश है। श्रवण कुमार की कहानी अक्सर स्कूलों में छोटे बच्चों को सुनाई जाती है और अपेक्षा की जाती है कि वे अपने माता पिता की वैसी ही सेवा करें जैसे श्रवण कुमार करता था। घरों में बूढ़े मा बाप अक्सर इस कहानी को सुन कर अपने बच्चों पर अंगुली उठाते हैं। जब कहानियों के प्रतीक खो जाते हैं और अपात्र व्यक्ति कहता सुनता है तो वे कहानियाँ असर करना बन्द कर देती है। इस कहानी में जिन माता पिता का उल्लेख किया गया है वह इस जगत के हर माता पिता की कहानी है। माता पिता जब अपना जीवन जी लेते हैं, बच्चों पर जब परिवार का बोझ आ पड़ता है तो इस बीच जमाना इतना तेजी से बदल जाता है कि माता पिता का नजरिया नई पीढ़ी के काम का नही रह जाता है। बच्चों को जो दिखाई देता है वह माता पिता को दिखाई देना बन्द हो जाता है। इसका अर्थ ये नही है कि अब माता पिता व्यर्थ हो गये हैं। उनकी शारीरिक आयु क्षीण होती जा रही होगी पर पुनर्जन्म की धारणा के अनुसार जीवन की सततता के कारण हर क्षण मनुष्य को स्वयं को अनावृत करना है। अब पुत्र माता पिता को ठीक उसी तरह से अपनी दुनिया दिखाए जैसे बचपन में उसके माता पिता ने अपनी दुनिया से परिचय कराया था। जरूरी नही है कि आप तत्काल कहते ही वे बातें समझ जाते थे जो आपके माता पिता आपको कहना चाहते थे। धैर्य पूर्वक उन्होंने आपको उस जगत का परिचय कराया। अब आगे का सफर आप अपने ढ़ंग से कर सकते हैं पर उनको साथ तो रखना चाहिए।
ये तो है कहानी के प्रतीक की व्याख्या। अब प्रश्न ये है कि कौन इस कहानी को कहे सुने कि जिससे इस कहानी का अर्थ तत्काल असर करे? इस कहानी को कोई पुत्र अपने माता पिता के मुख से सुनता है तो इसका कोई असर नही होता। स्कूल में शिक्षक भी ये कहानी बच्चों को सुनाए तो असरकारी नही है। इस कहानी को पत्नि अपने मुख से पति को सुनाए तो ये कहानी सबसे अधिक असरकारी हो सकती है। पत्नि अगर पति का सहयोग करे तो यह कहानी समाज पर अपनी छाप छोड़ सकती है। अन्यथा इस कहानी का होना ही व्यर्थ है।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Role of Collective consciousness in destiny of life on the planet earth.
Role of Collective consciousness in destiny of life on the planet earth.
समुह चेतना धरती के भाग्य का कैसे निर्माण करती है इसका परीक्षण भी किया गया है। जैसा कि अभी हाल ही की खोजों से स्पष्ट हुआ है कि पानी का क्रिस्टलाइजेशन एक रूप का नही होता वह अपना पैटर्न बदलता रहता है। इस पैटर्न के बदलाव के लिए हमारे विचार भी जिम्मेदार है। जब छोटे स्तर पर यह बात जाँच परख ली गई तो फिर ध्रूवीय प्रदेशों के बर्फ के क्रिस्टलाइजेशन का भी इतिहास टटोला गया और हैरान कर देने वाले नतीजे प्राप्त हो रहे हैं। बर्फ के वहाँ के क्रिस्टलाइजेशन के पैटर्न मानव जाति और अन्यान्य जीव जगत के भावलोक की रचना के साथ ही वहाँ की रचना में सुसंगति पाई गई है। कोई बड़ी बात नही है कि अगर हॉलीवुड मूवी में दिखाए गए अमेरिका के अंत, दुनिया के अंत आदि के सीन वास्तव में भी देखने को मिलने लग जाएं। हमारे संकल्प से ही हमारी सृष्टि का निर्माण हुआ है इस का भविष्य भी हमारे संकल्प से निर्धारित होना है। डबल स्प्लिट एक्सपेरिमेण्ट में इलेक्ट्रोन का व्यवहार तरंग का होगा या कण का होगा ये भी हमारे संकल्प का ही परिणाम होता है। क्वांटम भौतिकि की नई खोजें समूचे विज्ञान को एक नए आयाम में ले कर जा रही है। डॉ. विल्हेम रिक ने जर्मनी में जो ऑर्गन एनर्जी पर खोज की ठीक वह अध्याय भी अब आगे बढ़ने के आसार नजर आ रहे हैं। पीनियल ग्लैण्ड से सम्बन्धित खोजों में जिनकी रुचि है वे जी जान से जुटे हैं पैरलल फ्यूचर में से किसी अपने एक मन पसन्द ग्रिड में प्रवेश कर जाने का रास्ता खोजने के लिए। सन 2012 के बाद धरती की समुह चेतना में जो बदलाव आया है वह बहुत सुखद है। पूँजीवाद की पकड़ धरती पर ढ़ीली पड़ने को है। समृद्धि के नये शिखर पा लिए गए हैं। करैंंसी की दौड़ में अन्धों की तरह से जुटे लोग अब खुद को अकेला पाएंगे ये निश्चित है। समझदार लोगों ने ये दौड़ छोड़ दी है। भारत के मनीषी लोग भी इस क्षेत्र में जुटे ही होंगे बस तकनीक से इनका सम्पर्क नही है इसलिए समाचार कम ही जानने सुनने को मिलते हैं। राजनीति की तरफ देखें तो सुखद स्ंकेत मिल रहे हैं। कोई सत्ता में है या सत्ता से बाहर सब को अपनी सोच पर शर्म आने लगी है। आशा करनी चाहिए कि इक्कीसवीं सदी एक नई सुबह ले कर आ रही है। भारत का प्रशासनिक और राजनैतिक ढाँचा थोड़ी समझदारी दिखाए तो देश दुनिया के शिखर पर उभरता हुआ हो सकता है। बस जी समुद्र में जैसे सन्देश बोतल में डाल कर फैंक दिया जाता है उसी तरह से अपने वीरान टापू से ये बोतल फैंक रहा हूँ... किसी को मिल जाए तो पढ़ने का आनन्द लेना। बस इतना ही...
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
समुह चेतना धरती के भाग्य का कैसे निर्माण करती है इसका परीक्षण भी किया गया है। जैसा कि अभी हाल ही की खोजों से स्पष्ट हुआ है कि पानी का क्रिस्टलाइजेशन एक रूप का नही होता वह अपना पैटर्न बदलता रहता है। इस पैटर्न के बदलाव के लिए हमारे विचार भी जिम्मेदार है। जब छोटे स्तर पर यह बात जाँच परख ली गई तो फिर ध्रूवीय प्रदेशों के बर्फ के क्रिस्टलाइजेशन का भी इतिहास टटोला गया और हैरान कर देने वाले नतीजे प्राप्त हो रहे हैं। बर्फ के वहाँ के क्रिस्टलाइजेशन के पैटर्न मानव जाति और अन्यान्य जीव जगत के भावलोक की रचना के साथ ही वहाँ की रचना में सुसंगति पाई गई है। कोई बड़ी बात नही है कि अगर हॉलीवुड मूवी में दिखाए गए अमेरिका के अंत, दुनिया के अंत आदि के सीन वास्तव में भी देखने को मिलने लग जाएं। हमारे संकल्प से ही हमारी सृष्टि का निर्माण हुआ है इस का भविष्य भी हमारे संकल्प से निर्धारित होना है। डबल स्प्लिट एक्सपेरिमेण्ट में इलेक्ट्रोन का व्यवहार तरंग का होगा या कण का होगा ये भी हमारे संकल्प का ही परिणाम होता है। क्वांटम भौतिकि की नई खोजें समूचे विज्ञान को एक नए आयाम में ले कर जा रही है। डॉ. विल्हेम रिक ने जर्मनी में जो ऑर्गन एनर्जी पर खोज की ठीक वह अध्याय भी अब आगे बढ़ने के आसार नजर आ रहे हैं। पीनियल ग्लैण्ड से सम्बन्धित खोजों में जिनकी रुचि है वे जी जान से जुटे हैं पैरलल फ्यूचर में से किसी अपने एक मन पसन्द ग्रिड में प्रवेश कर जाने का रास्ता खोजने के लिए। सन 2012 के बाद धरती की समुह चेतना में जो बदलाव आया है वह बहुत सुखद है। पूँजीवाद की पकड़ धरती पर ढ़ीली पड़ने को है। समृद्धि के नये शिखर पा लिए गए हैं। करैंंसी की दौड़ में अन्धों की तरह से जुटे लोग अब खुद को अकेला पाएंगे ये निश्चित है। समझदार लोगों ने ये दौड़ छोड़ दी है। भारत के मनीषी लोग भी इस क्षेत्र में जुटे ही होंगे बस तकनीक से इनका सम्पर्क नही है इसलिए समाचार कम ही जानने सुनने को मिलते हैं। राजनीति की तरफ देखें तो सुखद स्ंकेत मिल रहे हैं। कोई सत्ता में है या सत्ता से बाहर सब को अपनी सोच पर शर्म आने लगी है। आशा करनी चाहिए कि इक्कीसवीं सदी एक नई सुबह ले कर आ रही है। भारत का प्रशासनिक और राजनैतिक ढाँचा थोड़ी समझदारी दिखाए तो देश दुनिया के शिखर पर उभरता हुआ हो सकता है। बस जी समुद्र में जैसे सन्देश बोतल में डाल कर फैंक दिया जाता है उसी तरह से अपने वीरान टापू से ये बोतल फैंक रहा हूँ... किसी को मिल जाए तो पढ़ने का आनन्द लेना। बस इतना ही...
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Cherity or Tax?
Cherity or Tax?
दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है। मान लीजिए आपका यही कर सलाहकार कर अधिकारी बन जाए या आज जैसा कि प्रचलन में है वास्तविक कर की गणना न करके वे आपके लिए धोखाधड़ी करने में मददगार हों और आपका कर बचाने की एवज में आपसे बढ़ी हुई फीस और रिश्वत लेने लग जाते हैं तो देश के विकास की बात कहाँ तक सच हो सकेगी?
पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित इसी तरह की व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई। आज राज्य आधारित लोक कल्याण अधिक मान्यता पाए हुए है, धर्म आधारित लोक कल्याण व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चर्च और सरकारों में लोक कल्याण की प्रतिस्पर्धा या सहयोग जो दिखाई देता है उसकी एक बड़ी खामी है कि वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता नही है। भारत में सनातन धर्म में और सरकार में वहीं सम्बन्ध बनाए जा सकने का कोई रास्ता खुल जाए तो जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी राज्यों में विकास की प्रतिस्पर्धा करवाना चाहते हैं वही काम धर्म आधारित भी हो सकता है। कर ढ़ाँचे की रचना भी उसी तर्ज पर की जानी चाहिए जिस तर्ज पर चर्च हितों के लिए पश्चिमि जगत अपने देशों में करता है और अन्य देशों को उस कर ढाँचे की रचना के लिए सलाह देता है या बाध्य करता है। दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है। मान लीजिए आपका यही कर सलाहकार कर अधिकारी बन जाए या आज जैसा कि प्रचलन में है वास्तविक कर की गणना न करके वे आपके लिए धोखाधड़ी करने में मददगार हों और आपका कर बचाने की एवज में आपसे बढ़ी हुई फीस और रिश्वत लेने लग जाते हैं तो देश के विकास की बात कहाँ तक सच हो सकेगी? पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित इसी तरह की व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई। आज राज्य आधारित लोक कल्याण अधिक मान्यता पाए हुए है, धर्म आधारित लोक कल्याण व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चर्च और सरकारों में लोक कल्याण की प्रतिस्पर्धा या सहयोग जो दिखाई देता है उसकी एक बड़ी खामी है कि वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता नही है। भारत में सनातन धर्म में और सरकार में वहीं सम्बन्ध बनाए जा सकने का कोई रास्ता खुल जाए तो जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी राज्यों में विकास की प्रतिस्पर्धा करवाना चाहते हैं वही काम धर्म आधारित भी हो सकता है। कर ढ़ाँचे की रचना भी उसी तर्ज पर की जानी चाहिए जिस तर्ज पर चर्च हितों के लिए पश्चिमि जगत अपने देशों में करता है और अन्य देशों को उस कर ढाँचे की रचना के लिए सलाह देता है या बाध्य करता है।
सनातन धर्म में जातीय विवाद सत्ताधीसों द्वारा फैलाया गया विवाद है। असली झगड़ा दान और दक्षिणा का था, है और रहेगा। दान सामाजिक हित के लिए व्यक्ति की त्यागी गई शक्ति है। इस शक्ति का विवेक सम्मत उपयोग करने की एवज में दक्षिणा ली जाती थी। जो वर्ग यह काम करता था वह बाह्मण जाति का एक उपवर्ग था। ये ब्राह्मण और उनके उपवर्ग सनातन है और रहेंगे। भले ही आप इनको किसी और भाषा में किसी और नाम से जान लें। जरा गौर से देखिये... समाज हित में त्यागी गई उस शक्ति का नाम आज टैक्स है, जो इस का संतुलन रखते हैं वे कंसल्टेंसी फीस लेकर कॉर्पोरेशंस और सरकार के बीच मध्यस्थता कर रहे हैं। दान और दक्षिणा में जिस तरह से सीमा रेखा नष्ट हो गई ठीक वैसे ही आज टैक्स और कंसल्टेंसी फीस की सीमा रेखा नष्ट हो गई है। इन कर सलाह कारों ने सदा ही अपने निजी स्वार्थों के कारण समाज हित की उपेक्षा की है। टैक्स (दान) चोरी कर लेने में ये सदा साथ रहे है। इसका नतीजा ये है कि आँकड़ों के अनुसार पिछले मात्र एक वर्ष में मात्र सो धनपतियों ने इतना धन कमाया है जिससे धरती की गरीबा चार बार दूर की जा सकती है। कर सलाहकार उद्योगपतियों के हित के लिए सरकारी नीतियों का निर्माण करने में सहयोग कर रहे हैं ये ब्राहमण के एक उपवर्ग का समाज पर अत्याचार ही तो है। पीडित वर्ग आज भी है, उनकी कनपटियों पर आज भी खोलती धातु डाली जा रही है। जिनके घर में खाने के लिए अनाज नही उनके घर ये खोलती धातु कौन पहुँचा र्हा है?
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है। मान लीजिए आपका यही कर सलाहकार कर अधिकारी बन जाए या आज जैसा कि प्रचलन में है वास्तविक कर की गणना न करके वे आपके लिए धोखाधड़ी करने में मददगार हों और आपका कर बचाने की एवज में आपसे बढ़ी हुई फीस और रिश्वत लेने लग जाते हैं तो देश के विकास की बात कहाँ तक सच हो सकेगी?
पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित इसी तरह की व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई। आज राज्य आधारित लोक कल्याण अधिक मान्यता पाए हुए है, धर्म आधारित लोक कल्याण व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चर्च और सरकारों में लोक कल्याण की प्रतिस्पर्धा या सहयोग जो दिखाई देता है उसकी एक बड़ी खामी है कि वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता नही है। भारत में सनातन धर्म में और सरकार में वहीं सम्बन्ध बनाए जा सकने का कोई रास्ता खुल जाए तो जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी राज्यों में विकास की प्रतिस्पर्धा करवाना चाहते हैं वही काम धर्म आधारित भी हो सकता है। कर ढ़ाँचे की रचना भी उसी तर्ज पर की जानी चाहिए जिस तर्ज पर चर्च हितों के लिए पश्चिमि जगत अपने देशों में करता है और अन्य देशों को उस कर ढाँचे की रचना के लिए सलाह देता है या बाध्य करता है। दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है। मान लीजिए आपका यही कर सलाहकार कर अधिकारी बन जाए या आज जैसा कि प्रचलन में है वास्तविक कर की गणना न करके वे आपके लिए धोखाधड़ी करने में मददगार हों और आपका कर बचाने की एवज में आपसे बढ़ी हुई फीस और रिश्वत लेने लग जाते हैं तो देश के विकास की बात कहाँ तक सच हो सकेगी? पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित इसी तरह की व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई। आज राज्य आधारित लोक कल्याण अधिक मान्यता पाए हुए है, धर्म आधारित लोक कल्याण व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चर्च और सरकारों में लोक कल्याण की प्रतिस्पर्धा या सहयोग जो दिखाई देता है उसकी एक बड़ी खामी है कि वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता नही है। भारत में सनातन धर्म में और सरकार में वहीं सम्बन्ध बनाए जा सकने का कोई रास्ता खुल जाए तो जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी राज्यों में विकास की प्रतिस्पर्धा करवाना चाहते हैं वही काम धर्म आधारित भी हो सकता है। कर ढ़ाँचे की रचना भी उसी तर्ज पर की जानी चाहिए जिस तर्ज पर चर्च हितों के लिए पश्चिमि जगत अपने देशों में करता है और अन्य देशों को उस कर ढाँचे की रचना के लिए सलाह देता है या बाध्य करता है।
सनातन धर्म में जातीय विवाद सत्ताधीसों द्वारा फैलाया गया विवाद है। असली झगड़ा दान और दक्षिणा का था, है और रहेगा। दान सामाजिक हित के लिए व्यक्ति की त्यागी गई शक्ति है। इस शक्ति का विवेक सम्मत उपयोग करने की एवज में दक्षिणा ली जाती थी। जो वर्ग यह काम करता था वह बाह्मण जाति का एक उपवर्ग था। ये ब्राह्मण और उनके उपवर्ग सनातन है और रहेंगे। भले ही आप इनको किसी और भाषा में किसी और नाम से जान लें। जरा गौर से देखिये... समाज हित में त्यागी गई उस शक्ति का नाम आज टैक्स है, जो इस का संतुलन रखते हैं वे कंसल्टेंसी फीस लेकर कॉर्पोरेशंस और सरकार के बीच मध्यस्थता कर रहे हैं। दान और दक्षिणा में जिस तरह से सीमा रेखा नष्ट हो गई ठीक वैसे ही आज टैक्स और कंसल्टेंसी फीस की सीमा रेखा नष्ट हो गई है। इन कर सलाह कारों ने सदा ही अपने निजी स्वार्थों के कारण समाज हित की उपेक्षा की है। टैक्स (दान) चोरी कर लेने में ये सदा साथ रहे है। इसका नतीजा ये है कि आँकड़ों के अनुसार पिछले मात्र एक वर्ष में मात्र सो धनपतियों ने इतना धन कमाया है जिससे धरती की गरीबा चार बार दूर की जा सकती है। कर सलाहकार उद्योगपतियों के हित के लिए सरकारी नीतियों का निर्माण करने में सहयोग कर रहे हैं ये ब्राहमण के एक उपवर्ग का समाज पर अत्याचार ही तो है। पीडित वर्ग आज भी है, उनकी कनपटियों पर आज भी खोलती धातु डाली जा रही है। जिनके घर में खाने के लिए अनाज नही उनके घर ये खोलती धातु कौन पहुँचा र्हा है?
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
How Indian Education System Works?
How Indian Education System Works?
परीक्षा में 33 नम्बर ला कर बच्चे बोर्ड की परीक्षा पास करते हैं।
जिनमें से 20 नम्बर स्कूल की तरफ से बोर्ड में भेजे जाते हैं।
मात्र 13 नम्बर का काम करके आपका लाडला अगली कक्षा के लिए क्वालिफाई हो जाता है।
ये परीक्षा वैसे ही है जैसे ...
फिटनैस क्लब में साल भर खर्च करके मात्र प्रदर्शन के लिए बच्चा 33 किलो वजन सफाई से उठा कर दिखा दे। फिर जरूरत पड़ने पर वह उतना वजन उठा सके उसकी कोई गारण्टी नही।
इसमें भी बेइमानी क्या है? ... स्कूलों में 20 नम्बर का अधिकार का दुरुपयोग होता है... (सोचिये कि) गत्ते के भार पर 20 किलो की पर्ची चिपका लगा कर फोटो खींच दी जाए कि इसने 20 किलो वजन उठाया है। फिर 13 नम्बर के लिए बोर्ड प्रमाण मांगता है तो किसी तरह से 13 किलो का वजन उठाने की फोटो खींच दी जाए। अब कम्प्यूटर की मदद से दोनों फोटो को जोड़ कर एक नही फोटो बना दी जाए जिसमें बच्चे को 33 किलो वजन उठाते दिखाया जा रहा हो। मार्कशीट एक ऐसा ही फोटो है जिसमें बच्चे को एक बार कुछ वजन उठाते दिखाया गया है। सारी उम्र वह उस फोटो को छाती से लगाए भटकता है कि देखो मैंने एक बार इतना वजन उठाया था। सोचिये इस फोटो के सहारे वह आज की जिन्दगी में अपनी भूमिका निभा सकेगा क्या?
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
परीक्षा में 33 नम्बर ला कर बच्चे बोर्ड की परीक्षा पास करते हैं।
जिनमें से 20 नम्बर स्कूल की तरफ से बोर्ड में भेजे जाते हैं।
मात्र 13 नम्बर का काम करके आपका लाडला अगली कक्षा के लिए क्वालिफाई हो जाता है।
ये परीक्षा वैसे ही है जैसे ...
फिटनैस क्लब में साल भर खर्च करके मात्र प्रदर्शन के लिए बच्चा 33 किलो वजन सफाई से उठा कर दिखा दे। फिर जरूरत पड़ने पर वह उतना वजन उठा सके उसकी कोई गारण्टी नही।
इसमें भी बेइमानी क्या है? ... स्कूलों में 20 नम्बर का अधिकार का दुरुपयोग होता है... (सोचिये कि) गत्ते के भार पर 20 किलो की पर्ची चिपका लगा कर फोटो खींच दी जाए कि इसने 20 किलो वजन उठाया है। फिर 13 नम्बर के लिए बोर्ड प्रमाण मांगता है तो किसी तरह से 13 किलो का वजन उठाने की फोटो खींच दी जाए। अब कम्प्यूटर की मदद से दोनों फोटो को जोड़ कर एक नही फोटो बना दी जाए जिसमें बच्चे को 33 किलो वजन उठाते दिखाया जा रहा हो। मार्कशीट एक ऐसा ही फोटो है जिसमें बच्चे को एक बार कुछ वजन उठाते दिखाया गया है। सारी उम्र वह उस फोटो को छाती से लगाए भटकता है कि देखो मैंने एक बार इतना वजन उठाया था। सोचिये इस फोटो के सहारे वह आज की जिन्दगी में अपनी भूमिका निभा सकेगा क्या?
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Guidance and Counselling... Role of Numerology in life.
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Becoming A Reader... 1
Becoming A Reader... 1
आप यकीन करें या ना करें जन्म लेते ही आपका बच्चा एक अच्छा पाठक बन जाता है। जब वह पहली ध्वनि सुन रहा है तो ये उसके लिए एक पाठन है, जब भी आप बोलते हो, गाते हो या उसकी किसी हरकत पर आप प्रतिक्रिया करते हो वह उसको पढ़ना चाहता है और पढ़ता है। मतलब ये है कि जन्म लेते ही बच्चा अपनी पठन क्षमता को और मजबूत करने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। और आपके मार्गदर्शन में वह अपनी इस क्षमता को निरंतर बढ़ाता रहता है। बच्चे का भाषा के साथ यह सम्बन्ध बनाने का आपका प्रयास जितना अधिक प्रभावी होता है बच्चा उतना ही अधिक वातावरण के प्रति अनुकूलन बना लेता है। उसका पिछड़ जाना उसकी कमी नही हमारी लापरवाही है। एक सीमा के बाद हम उसके साथ सम्वाद करना बन्द कर देते हैं या उतने प्यास से प्रतिक्रिया नही करते जितना उसके साथ उसके शिशुकाल में करते हैं। भाषा के सीखने के उसके प्रयास को समझने के लिए हमें यह जान लेना चाहिए कि भाषा के चार स्तम्भ है... सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। चारों स्तम्भ एक दूसरे के सहारे खड़े हैं। सुनने के बिना बोलना नही हो सकता। यही कारण है कि बहरा व्यक्ति गूंगा भी होता है। सुनने के बिना लिखना भी नही हुआ था और लिखने के बिना पढ़ना सम्भव नही है। अब समझने की बात यह है कि माता पिता भाषा के यह चारों माध्यम अपने बच्चे को कुशलता से कैसे हस्तांतरित करे। बच्चे की इन चारों कुशलता के विकास के लिए विद्यालय से ज्यादा माता पिता की जिम्मेदारी है। उसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ वह स्वयं सम्भाल सके उसके लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना परिवार के लिए आवश्यक है। आपके बच्चे की सामाजिक में भी भूमिका बढ़े उसके लिए विद्यालय उपयोगिता है। अत: परिवार का एक निरंतर दायित्व है कि व्ह बच्चे को सुने और उसे बात करना सिखाए, उसके साथ पाठन से जुड़े, उसे पुस्तक से परिचय कराए, जल्दी से जल्दी उसे लिखना सिखाए, स्पष्ट पाठन उसकी कुशलता हो सके इस प्रयास में कोई कसर नही छोड़नी चाहिए। आपकी रुचि के कारण ही वह पुस्तक से प्रेम करना सीख सकता है। आप स्वयं विचार करें कि आपकी आय का कितना प्रतिशत हिस्सा अच्छी पुस्तकों पर खर्च होता है? आपके लिए यह आवश्यक नही है कि आप उसके साथ निरंतर पढ़े। पर जब उसने पढ़ना सीख लिया है तो उसके नये पढ़े गये पर आप उससे निरंतर चर्चा अवश्य करें जिससे आपको भी कुछ नया सीखने को मिलेगा और बच्चे को में भी पढ़ने के प्रति सम्मान जागेगा। क्यों कि आप उसकी नई जानकारियों के प्रति प्रेम करते हैं। वह आपका प्रेम पाने के लिए नया सीखेगा। प्राय: सात वर्ष की आयु तक बच्चे पढ़ना सीख लेते हैं। माता पिता की सक्रीयता और बच्चे की निजी क्षमता की सम्भावना के कारण यह समय कभी कभी असाधारण रूप से कम या अधिक हो सकता है। पढ़ने की क्षमता आने के बाद कुछ बच्चे तो निरंतर नया पढ़ने की तलाश करते हैं और कुछ अपनी पुरानी पुस्तकों को बार बार दोहरान पसन्द करते हैं। जो बच्चे पुरानी पुस्तकों का दोहरान पसन्द करते हैं उनकी स्मरण शक्ति का विकास करने में परिवार मदद कर सकत है और जो नया पढ़ना चाहते हैं उनकी विचार शक्ति और तार्किक शक्ति का विकास होने लगेगा। दोनों ही स्थितियाँ आरम्भिक अवस्था में बच्चे के लिए उपयोगी है। बच्चे को छोटी आयु में ही अगर सही मददगार मिल जाए तो बाद में आने वाली पढ़ने और समझने की कठिनाई दूर हो जाती है। बच्चे को एक सफल पाठक पाठक बनाने का सफर बहुत ही रोचक होता है माता पिता के लिए भी और स्वयं बच्चे के लिए भी इस रोमांच से किसी को भी चूकना नही चाहिए। आपके बच्चे के भविष्य के लिए यह एक शानदार तोहफा भी है।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
आप यकीन करें या ना करें जन्म लेते ही आपका बच्चा एक अच्छा पाठक बन जाता है। जब वह पहली ध्वनि सुन रहा है तो ये उसके लिए एक पाठन है, जब भी आप बोलते हो, गाते हो या उसकी किसी हरकत पर आप प्रतिक्रिया करते हो वह उसको पढ़ना चाहता है और पढ़ता है। मतलब ये है कि जन्म लेते ही बच्चा अपनी पठन क्षमता को और मजबूत करने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। और आपके मार्गदर्शन में वह अपनी इस क्षमता को निरंतर बढ़ाता रहता है। बच्चे का भाषा के साथ यह सम्बन्ध बनाने का आपका प्रयास जितना अधिक प्रभावी होता है बच्चा उतना ही अधिक वातावरण के प्रति अनुकूलन बना लेता है। उसका पिछड़ जाना उसकी कमी नही हमारी लापरवाही है। एक सीमा के बाद हम उसके साथ सम्वाद करना बन्द कर देते हैं या उतने प्यास से प्रतिक्रिया नही करते जितना उसके साथ उसके शिशुकाल में करते हैं। भाषा के सीखने के उसके प्रयास को समझने के लिए हमें यह जान लेना चाहिए कि भाषा के चार स्तम्भ है... सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। चारों स्तम्भ एक दूसरे के सहारे खड़े हैं। सुनने के बिना बोलना नही हो सकता। यही कारण है कि बहरा व्यक्ति गूंगा भी होता है। सुनने के बिना लिखना भी नही हुआ था और लिखने के बिना पढ़ना सम्भव नही है। अब समझने की बात यह है कि माता पिता भाषा के यह चारों माध्यम अपने बच्चे को कुशलता से कैसे हस्तांतरित करे। बच्चे की इन चारों कुशलता के विकास के लिए विद्यालय से ज्यादा माता पिता की जिम्मेदारी है। उसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ वह स्वयं सम्भाल सके उसके लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना परिवार के लिए आवश्यक है। आपके बच्चे की सामाजिक में भी भूमिका बढ़े उसके लिए विद्यालय उपयोगिता है। अत: परिवार का एक निरंतर दायित्व है कि व्ह बच्चे को सुने और उसे बात करना सिखाए, उसके साथ पाठन से जुड़े, उसे पुस्तक से परिचय कराए, जल्दी से जल्दी उसे लिखना सिखाए, स्पष्ट पाठन उसकी कुशलता हो सके इस प्रयास में कोई कसर नही छोड़नी चाहिए। आपकी रुचि के कारण ही वह पुस्तक से प्रेम करना सीख सकता है। आप स्वयं विचार करें कि आपकी आय का कितना प्रतिशत हिस्सा अच्छी पुस्तकों पर खर्च होता है? आपके लिए यह आवश्यक नही है कि आप उसके साथ निरंतर पढ़े। पर जब उसने पढ़ना सीख लिया है तो उसके नये पढ़े गये पर आप उससे निरंतर चर्चा अवश्य करें जिससे आपको भी कुछ नया सीखने को मिलेगा और बच्चे को में भी पढ़ने के प्रति सम्मान जागेगा। क्यों कि आप उसकी नई जानकारियों के प्रति प्रेम करते हैं। वह आपका प्रेम पाने के लिए नया सीखेगा। प्राय: सात वर्ष की आयु तक बच्चे पढ़ना सीख लेते हैं। माता पिता की सक्रीयता और बच्चे की निजी क्षमता की सम्भावना के कारण यह समय कभी कभी असाधारण रूप से कम या अधिक हो सकता है। पढ़ने की क्षमता आने के बाद कुछ बच्चे तो निरंतर नया पढ़ने की तलाश करते हैं और कुछ अपनी पुरानी पुस्तकों को बार बार दोहरान पसन्द करते हैं। जो बच्चे पुरानी पुस्तकों का दोहरान पसन्द करते हैं उनकी स्मरण शक्ति का विकास करने में परिवार मदद कर सकत है और जो नया पढ़ना चाहते हैं उनकी विचार शक्ति और तार्किक शक्ति का विकास होने लगेगा। दोनों ही स्थितियाँ आरम्भिक अवस्था में बच्चे के लिए उपयोगी है। बच्चे को छोटी आयु में ही अगर सही मददगार मिल जाए तो बाद में आने वाली पढ़ने और समझने की कठिनाई दूर हो जाती है। बच्चे को एक सफल पाठक पाठक बनाने का सफर बहुत ही रोचक होता है माता पिता के लिए भी और स्वयं बच्चे के लिए भी इस रोमांच से किसी को भी चूकना नही चाहिए। आपके बच्चे के भविष्य के लिए यह एक शानदार तोहफा भी है।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Becoming A Reader...
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बरसों की शोध प्रमाणित करती है कि सीखने में बच्चे के परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका है। जब परिवार बच्चे के साथ साथ अपने हित की जानकारी साथ साथ पढ़ता है तो बच्चे को अपना होमवर्क पूरा करने की प्रेरणा मिलती है, अगर परिवार बच्चे के शिक्षकों से भी बात करे, स्कूल के निमंत्रण पर उसके साथ स्कूल की गतिविधियों में भाग ले तो बच्चे को इससे असाधारण लाभ मिलता है। बच्चे के स्वास्थ्य और खुशी में परिवार अपनी भूमिका बखूबी निभाता है पर अगर बच्चे को परिवार द्वारा पढ़ने की आदत डालने में मदद मिल जाए तो जीवन में वह अपना मार्ग स्वयं चुन लेने और आगे बढ़ने में समर्थ हो जाएगा। देख कर सीखना बच्चे की आदत होती है। अच्छा हो कि परिवार में उसके सामने प्रतिदिन कोई ना कोई पुस्तक पढ़ने की आदत बनाए रखे। यह बच्चे की स्कूल के परिणाम में ही सहयोगी नही है बल्कि पढ़ने की आदत बच्चे को जीवन भर सफल और आनन्द से जीने के रास्ते ढ़ूँढने में मदद करेगी। बच्चे के पढ़ने की आदत बन गई तो समझो कि उनके हाथ दुनिया की वह चाबी हाथ लग गई है जिससे वह ज्ञान का कोई भी दरवाजा खोलने में समर्थ हो जाएगा। इस चाबी के बिना आज अधिकाँश बच्चे पिछड़ रहे हैं। हमारे देश में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के विकास के कुछ मानक निर्धारित किये जाएं और उन मानकों के आधार पर बच्चों का मापन, परीक्षण, सुधार आदि हर स्तर पर किये जा सकने का मार्ग खुलना चाहिए। आज तो केवल विद्यालय, बोर्ड या विश्वविद्यालय के प्रमाण पत्र ही मानक बन कर रह गये हैं जो किसी भी दृष्टि से देश के मानव संसाधन के सही आकलन का आधार नही हो सकते। इसके लिए सबसे बड़ी जरूरत है कि शिक्षकों की एक ऐसी नस्ल तैयार हो जो बच्चों में पढ़ने के प्रति रुचि पैदा करे। इस कुशलता का विकास विद्यालयों में बचपन में ही किया जाना चाहिए। अलग से ऐसे रिसोर्स पर्सन तैयार किये जाने चाहिए जो शिक्षकों को ये सिखाए कि बच्चे में पढ़ने की क्षमता का विकास कैसे किया जाना चाहिए। परिवार में एक आदत बनानी चाहिए कि बच्चे के स्कूल जाना आरम्भ करने से पहले ही वह उसके बोलने का सम्मान करे। बच्चे को अपनी बात विस्तार से बताने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। परिवार के बड़ों को चाहिए कि वह बच्चे के बोलने को ध्यान से सुने, उसके कहने के प्रयास का सम्मान करें। मह्त्वपूर्ण यह नही है कि वह अपनी बात कितने सही ढ़ंग से कह रहा है, महत्वपूर्ण ये है कि वह अपनी बात कितनी बेहतर ढ़ंग से कहने का प्रयास कर रहा है। परिवार को धैर्य पूर्वक उसे सुन कर तर्कपूर्ण ढ़ंग से बात कहना सीखने में मदद करनी चाहिए।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
बरसों की शोध प्रमाणित करती है कि सीखने में बच्चे के परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका है। जब परिवार बच्चे के साथ साथ अपने हित की जानकारी साथ साथ पढ़ता है तो बच्चे को अपना होमवर्क पूरा करने की प्रेरणा मिलती है, अगर परिवार बच्चे के शिक्षकों से भी बात करे, स्कूल के निमंत्रण पर उसके साथ स्कूल की गतिविधियों में भाग ले तो बच्चे को इससे असाधारण लाभ मिलता है। बच्चे के स्वास्थ्य और खुशी में परिवार अपनी भूमिका बखूबी निभाता है पर अगर बच्चे को परिवार द्वारा पढ़ने की आदत डालने में मदद मिल जाए तो जीवन में वह अपना मार्ग स्वयं चुन लेने और आगे बढ़ने में समर्थ हो जाएगा। देख कर सीखना बच्चे की आदत होती है। अच्छा हो कि परिवार में उसके सामने प्रतिदिन कोई ना कोई पुस्तक पढ़ने की आदत बनाए रखे। यह बच्चे की स्कूल के परिणाम में ही सहयोगी नही है बल्कि पढ़ने की आदत बच्चे को जीवन भर सफल और आनन्द से जीने के रास्ते ढ़ूँढने में मदद करेगी। बच्चे के पढ़ने की आदत बन गई तो समझो कि उनके हाथ दुनिया की वह चाबी हाथ लग गई है जिससे वह ज्ञान का कोई भी दरवाजा खोलने में समर्थ हो जाएगा। इस चाबी के बिना आज अधिकाँश बच्चे पिछड़ रहे हैं। हमारे देश में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के विकास के कुछ मानक निर्धारित किये जाएं और उन मानकों के आधार पर बच्चों का मापन, परीक्षण, सुधार आदि हर स्तर पर किये जा सकने का मार्ग खुलना चाहिए। आज तो केवल विद्यालय, बोर्ड या विश्वविद्यालय के प्रमाण पत्र ही मानक बन कर रह गये हैं जो किसी भी दृष्टि से देश के मानव संसाधन के सही आकलन का आधार नही हो सकते। इसके लिए सबसे बड़ी जरूरत है कि शिक्षकों की एक ऐसी नस्ल तैयार हो जो बच्चों में पढ़ने के प्रति रुचि पैदा करे। इस कुशलता का विकास विद्यालयों में बचपन में ही किया जाना चाहिए। अलग से ऐसे रिसोर्स पर्सन तैयार किये जाने चाहिए जो शिक्षकों को ये सिखाए कि बच्चे में पढ़ने की क्षमता का विकास कैसे किया जाना चाहिए। परिवार में एक आदत बनानी चाहिए कि बच्चे के स्कूल जाना आरम्भ करने से पहले ही वह उसके बोलने का सम्मान करे। बच्चे को अपनी बात विस्तार से बताने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। परिवार के बड़ों को चाहिए कि वह बच्चे के बोलने को ध्यान से सुने, उसके कहने के प्रयास का सम्मान करें। मह्त्वपूर्ण यह नही है कि वह अपनी बात कितने सही ढ़ंग से कह रहा है, महत्वपूर्ण ये है कि वह अपनी बात कितनी बेहतर ढ़ंग से कहने का प्रयास कर रहा है। परिवार को धैर्य पूर्वक उसे सुन कर तर्कपूर्ण ढ़ंग से बात कहना सीखने में मदद करनी चाहिए।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
गाइडेंस और कॉंसलिंग से आप बदलते सामाजिक पर्यावरण में तेजी से समायोजित हो सकते हो...
गाइडेंस और कॉंसलिंग से आप बदलते सामाजिक पर्यावरण में तेजी से समायोजित हो सकते हो...
गाइडेंस और कॉंसलिंग से सहायता वे लोग बेहतर विकास कर सकते हैं जो आत्म मुल्यांकन करना जानते हैं। स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों में तो नष्ट की जा रही है। परीक्षा प्रणाली के चरण इस प्रकार होने चाहिए ... स्व मुल्यांकन ( सीखने के लिए दिये गये लक्ष्य को हासिल करने में कितनी सफलता मिली है इसकी पहचान करना बच्चे को आनी चाहिए), पारस्परिक मुल्यांकन ( अपने मित्र से चर्चा करके वह अपने द्वारा प्राप्त किये गये लक्ष्य का आकलन कराना सीखे), शिक्षक/अभिभावक मुल्यांकन तीसरा चरण होना चाहिए ( अपने द्वारा दिये गए काम का परीक्षण करने से पहले बच्चे को प्रेरित करे कि वह पहले के दो चरण पूरे कर के आप से सम्पर्क करे), बोर्ड/विश्वविद्यालय या प्राचार्य मुल्यांकन तो पंच फैसले की तरह से होना चाहिए। जो लोग स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों से बचा कर ले आते हैं वे ही आगे बढ़ने के लिए किसी की सहायता का अनुभव करते हैं। मनोपरामर्श के बारे में एक धारणा समाज में गलत बैठी हुई है कि यह तो केवल पागलों के लिए आवश्यक चिकित्सा है। दरअसल इसे कार की मैकेनिक वर्कशॉप और कार ड्राइविंग के स्कूल के रूप में देख कर समझा जा सकता है। जब आप परामर्श चाहते हैं तो इसका अर्थ है कि कार चलाना सीखने की तरह ही आप अपनी क्षमताओं, रुचियों, आवश्यकताओं में तालमेल बैठाने के लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह ले रहे हैं। मनोचिकित्सा का अर्थ है जैसे कि कार खराब होने पर आप उसे वर्कशॉप में ले कर जा रहे हैं। अब एक बात स्पष्ट समझ आ जाती है कि आप स्वयं अगर किसी मनोपरामर्शक के पास जा रहे हैं या किसी अच्छे मनोपरामर्शक के लिए मित्रों से सलाह कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि आपकी गाड़ी सही है और उसे ठीक से चलाना सीखने के लिए आपको प्रशिक्षक की आवश्यकता है जो दुर्भाग्य से आप को शिक्षण काल में नही मिल रहा है जो आप का अधिकार था। अब इस प्रक्रिया को चरण बद्ध रूप से इस प्रकार समझ सकते हैं... ■आप अनुभव करते हैं कि आपको सहायता की आवश्यकता है। ■आप किसी अच्छे परामर्शक से स्वयं सम्पर्क करते हैं या किसी मित्र से सलाह माँगते हैं कि किसकी सहायता लेनी चाहिए। ■आप अनुमान करते हैं कि परामर्शक के साथ आपके सम्बंध किस प्रकार के बनेंगे। ■जब आप परामर्शक से मिलते हैं तो अपनी जरूरतें शेयर करते हैं, भावुक भी हो जाते हैं। ■इस सत्र में आप अपनी आवश्यकता को भाषा में व्यक्त करना सीख लेते हैं कि आप स्वयं से क्या चाहते हैं। अनावश्यक तनाव, चिंता, भय दूर हो जाते हैं। ■हो सकता है कि आपके अतीत से कोई समस्या के कारण निकल कर आए और उसके लिए कुछ अभ्यास करने पड़ें। ■अपनी जरूरत और समस्याओं के प्रबन्धन के विषय में आपके मन में एक स्पष्ट तस्वीर बन जाती है जिस पर आप आश्वस्त हो कर काम कर सकें। ■बद्लाव के प्रति आप चिंतित हो सकते हैं उसका प्रबन्धन करने के लिए आपको परामर्शक आश्वस्त करता है कि जीने की नई शैली आपको किस प्रकार वर्तमान अनुचित वातावरण से मुक्त कर सकती है। ■अब आप परामर्शक की सलाह पर कुछ अभ्यास आरम्भ करते हैं और बदलाव का अनुभव होने लगता हैं। ■अंतिम चरण में आप अपनी समस्याओं को स्वयं हल करने लगते हैं और परामर्शक की आवश्यकता का अनुभव नही करते। ये वैसे ही है जैसे कि बच्चे को चलना सिखाने के लिए कुछ समय के लिए सम्भाल कर रखना पड़ता है फिर वह सारी उम्र अपना चलना सीखा हुआ भूल नही सकता।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
गाइडेंस और कॉंसलिंग से सहायता वे लोग बेहतर विकास कर सकते हैं जो आत्म मुल्यांकन करना जानते हैं। स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों में तो नष्ट की जा रही है। परीक्षा प्रणाली के चरण इस प्रकार होने चाहिए ... स्व मुल्यांकन ( सीखने के लिए दिये गये लक्ष्य को हासिल करने में कितनी सफलता मिली है इसकी पहचान करना बच्चे को आनी चाहिए), पारस्परिक मुल्यांकन ( अपने मित्र से चर्चा करके वह अपने द्वारा प्राप्त किये गये लक्ष्य का आकलन कराना सीखे), शिक्षक/अभिभावक मुल्यांकन तीसरा चरण होना चाहिए ( अपने द्वारा दिये गए काम का परीक्षण करने से पहले बच्चे को प्रेरित करे कि वह पहले के दो चरण पूरे कर के आप से सम्पर्क करे), बोर्ड/विश्वविद्यालय या प्राचार्य मुल्यांकन तो पंच फैसले की तरह से होना चाहिए। जो लोग स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों से बचा कर ले आते हैं वे ही आगे बढ़ने के लिए किसी की सहायता का अनुभव करते हैं। मनोपरामर्श के बारे में एक धारणा समाज में गलत बैठी हुई है कि यह तो केवल पागलों के लिए आवश्यक चिकित्सा है। दरअसल इसे कार की मैकेनिक वर्कशॉप और कार ड्राइविंग के स्कूल के रूप में देख कर समझा जा सकता है। जब आप परामर्श चाहते हैं तो इसका अर्थ है कि कार चलाना सीखने की तरह ही आप अपनी क्षमताओं, रुचियों, आवश्यकताओं में तालमेल बैठाने के लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह ले रहे हैं। मनोचिकित्सा का अर्थ है जैसे कि कार खराब होने पर आप उसे वर्कशॉप में ले कर जा रहे हैं। अब एक बात स्पष्ट समझ आ जाती है कि आप स्वयं अगर किसी मनोपरामर्शक के पास जा रहे हैं या किसी अच्छे मनोपरामर्शक के लिए मित्रों से सलाह कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि आपकी गाड़ी सही है और उसे ठीक से चलाना सीखने के लिए आपको प्रशिक्षक की आवश्यकता है जो दुर्भाग्य से आप को शिक्षण काल में नही मिल रहा है जो आप का अधिकार था। अब इस प्रक्रिया को चरण बद्ध रूप से इस प्रकार समझ सकते हैं... ■आप अनुभव करते हैं कि आपको सहायता की आवश्यकता है। ■आप किसी अच्छे परामर्शक से स्वयं सम्पर्क करते हैं या किसी मित्र से सलाह माँगते हैं कि किसकी सहायता लेनी चाहिए। ■आप अनुमान करते हैं कि परामर्शक के साथ आपके सम्बंध किस प्रकार के बनेंगे। ■जब आप परामर्शक से मिलते हैं तो अपनी जरूरतें शेयर करते हैं, भावुक भी हो जाते हैं। ■इस सत्र में आप अपनी आवश्यकता को भाषा में व्यक्त करना सीख लेते हैं कि आप स्वयं से क्या चाहते हैं। अनावश्यक तनाव, चिंता, भय दूर हो जाते हैं। ■हो सकता है कि आपके अतीत से कोई समस्या के कारण निकल कर आए और उसके लिए कुछ अभ्यास करने पड़ें। ■अपनी जरूरत और समस्याओं के प्रबन्धन के विषय में आपके मन में एक स्पष्ट तस्वीर बन जाती है जिस पर आप आश्वस्त हो कर काम कर सकें। ■बद्लाव के प्रति आप चिंतित हो सकते हैं उसका प्रबन्धन करने के लिए आपको परामर्शक आश्वस्त करता है कि जीने की नई शैली आपको किस प्रकार वर्तमान अनुचित वातावरण से मुक्त कर सकती है। ■अब आप परामर्शक की सलाह पर कुछ अभ्यास आरम्भ करते हैं और बदलाव का अनुभव होने लगता हैं। ■अंतिम चरण में आप अपनी समस्याओं को स्वयं हल करने लगते हैं और परामर्शक की आवश्यकता का अनुभव नही करते। ये वैसे ही है जैसे कि बच्चे को चलना सिखाने के लिए कुछ समय के लिए सम्भाल कर रखना पड़ता है फिर वह सारी उम्र अपना चलना सीखा हुआ भूल नही सकता।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Use positive words in daily communication... Mantra affects our life?
Use positive words in daily communication... Mantra affects our life?
मंत्र विज्ञान पर अक्सर चर्चा होती है कि वे हमारे जीवन पर कितना असर डालते हैं। प्रभाव जानने के लिए कुछ छोटे छोटे प्रयोग कर के देखें... एक उदाहरण... निम्न लिखित वाक्यों पर विचार करें ... A. मैं खूबसूरत नही हूँ। X. मैं भद्दा हूँ। B. रमेश बहादुर नही है। Y.रमेश कायर है। C. आप जीत नही पाओगे। Z. आप तो हार जाओगे। तीनों वाक्यों पर तीन समुहों में लिखे इन वाक्यों पर गौर करें। पहली लाइन के दोनों वाक्यों A. और X. का भाव तो एक ही है पर दो अलग अलग शब्द काम में लिए गये हैं। इसी तरह दूसरे और तीसरे वाक्य समूह में भाव एक ही है पर शब्द अलग अलग काम में लिए गये हैं। केवल हाँ और ना का उपयोग करके शब्द का अर्थ विपरीत होते हुए भी वाक्य का अर्थ एक ही कर दिया गया है। खूबसूरत, बहादुर और जीत जैसे विधायक शब्द आपके जीवन में मंत्र का काम करते हैं। इसी तरह से भद्दा, कायर, हार जैसे शब्द भी आपके जीवन पर छाप छोड़ते हैं। हाँ और ना तो परिस्थिति जन्य है। परिस्थिति बदलते ही आप परिणाम से मुक्त हो सकते हैं पर विपरीत परिणाम मिले ये आवश्यक नही है। जैसे ... आप हारने से डरते हैं तो हो सकता है कि आपको प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर ही ना मिले और आप हारने से बच जाएं। पर जीतने की सम्भावना से भी आप काफी दूर हैं। वह भाव तो अभी आपके मन में बीज ही नही बना पाया है। अवसर मिलने पर भी बीज के अभाव में आप जीत नही पाएंगे। इस विषय वस्तु की वैज्ञानिक विवेचना भी किया जाना सम्भव हो गया है। जन साधारण विश्वास पूर्वक अपने प्रतिदिन के प्रयोग में लिए जाने वाले वाक्याँशों पर विचार करे और अपेक्षित बदलाव के लिए आश्वस्त रहें। गारण्टी से कहा जा सकता है कि बहुतों के जीवन में इतने से बद्लाव से चमत्कारिक प्रभाव दिखने लगेंगे।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
मंत्र विज्ञान पर अक्सर चर्चा होती है कि वे हमारे जीवन पर कितना असर डालते हैं। प्रभाव जानने के लिए कुछ छोटे छोटे प्रयोग कर के देखें... एक उदाहरण... निम्न लिखित वाक्यों पर विचार करें ... A. मैं खूबसूरत नही हूँ। X. मैं भद्दा हूँ। B. रमेश बहादुर नही है। Y.रमेश कायर है। C. आप जीत नही पाओगे। Z. आप तो हार जाओगे। तीनों वाक्यों पर तीन समुहों में लिखे इन वाक्यों पर गौर करें। पहली लाइन के दोनों वाक्यों A. और X. का भाव तो एक ही है पर दो अलग अलग शब्द काम में लिए गये हैं। इसी तरह दूसरे और तीसरे वाक्य समूह में भाव एक ही है पर शब्द अलग अलग काम में लिए गये हैं। केवल हाँ और ना का उपयोग करके शब्द का अर्थ विपरीत होते हुए भी वाक्य का अर्थ एक ही कर दिया गया है। खूबसूरत, बहादुर और जीत जैसे विधायक शब्द आपके जीवन में मंत्र का काम करते हैं। इसी तरह से भद्दा, कायर, हार जैसे शब्द भी आपके जीवन पर छाप छोड़ते हैं। हाँ और ना तो परिस्थिति जन्य है। परिस्थिति बदलते ही आप परिणाम से मुक्त हो सकते हैं पर विपरीत परिणाम मिले ये आवश्यक नही है। जैसे ... आप हारने से डरते हैं तो हो सकता है कि आपको प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर ही ना मिले और आप हारने से बच जाएं। पर जीतने की सम्भावना से भी आप काफी दूर हैं। वह भाव तो अभी आपके मन में बीज ही नही बना पाया है। अवसर मिलने पर भी बीज के अभाव में आप जीत नही पाएंगे। इस विषय वस्तु की वैज्ञानिक विवेचना भी किया जाना सम्भव हो गया है। जन साधारण विश्वास पूर्वक अपने प्रतिदिन के प्रयोग में लिए जाने वाले वाक्याँशों पर विचार करे और अपेक्षित बदलाव के लिए आश्वस्त रहें। गारण्टी से कहा जा सकता है कि बहुतों के जीवन में इतने से बद्लाव से चमत्कारिक प्रभाव दिखने लगेंगे।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
How to Play Game of Black Money...
काला धन काला धन हमने तो बचपन में खूब खेला है। राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, उद्योगपतियों, धर्मगुरूओं का इस खेल से अभी पेट नही भरा। ये खेल भी क्रिकेट की तरह से अच्छे दर्शक बटोर लेता है इसलिए टेलीविजन पर इसे खूब दिखाया जाता है। इस खेल को कोई भी अपने घर पर दस पाँच दोस्तों के साथ खेल सकता है। बस शर्त ये है कि एक बच्चा अपने घर में किसी बुजुर्ग दादा, दादी, नाना, नानी का लाडला हो। अब खेल के नियम सीख लीजिए... ताश की दो चार जोड़िया मिला लीजिये। कुडीमार कहते थे हम तो जिस खेल के लिए तैयारी करते थे (आप क्या कहते थे आप जानो)। खेल समाप्त होते ही सारी ताश की जोड़िया अलग अलग कर के रखनी होती थी। ताकि बड़े बुजुर्ग लोग जब ताश उठाए तो उनको बावन पत्ते तुरंत मिल जाए। अब किसी ऐसे घर में जा कर बैठते थे जिसमें माता पिता को बच्चों के इकठ्ठा होकर खेलने में आपत्ति ना हो। इस सरल से खेल को खेलने के लिए अक्षर, गिनती का ज्ञान और ताश के पत्ते पहचानने तक की समझ पर्याप्त होती है। कुडीमार ( सब अपनी ढेरी से एक एक पत्ता फैंकते हैं जब दो पत्ते मैच कर जाते हैं तो जिसने बाद में पत्ता फैंका होता है वह ढेरी उठा कर ले जाता है) जिसके पत्ते समाप्त हो जाते थे वह हार जाता था। इस खेल में एक बैंक प्रणाली भी थी। जिस तरह से सोना चान्दी या घर आदि गिरवी रख कर लोग अपनी जरूरतों के लिए धन बैंक से लेते हैं वैसे ही ताश के रंगीन पत्तों को हर खिलाड़ी खेल के शुरू में ही सम्पत्ति की तरह से छुपा कर रख लेते हैं। जब 1-10 के पत्ते खेलते खेलते कोई जब सारे पत्ते खो देता तो जिसके पास अधिक पत्ते होते थे वह दूसरे के रंगीन पत्तों के बदले अलग अलग मुल्यों के अनुसार उसे धन (1-10 के पत्ते दे देता था)। अब ये सब ठीक ठीक चलता रहे तो जिन्दगी मजे से कट जाती है पर बीच में कभी कभी कालाधन कालाधन खेलना पड़ जाता था... ये बड़ा तकलीफ देने वाला होता था। होता ये था कि जिस घर में बैठ कर खेलते थे उस घर में एक दूधमुँहा बच्चा अपने दादाजी का लाडला था। वह खेलने की जिद करता था। ना खिलाने पर वह कुछ पते चुपाकर दादाजी की गोद में छुप जाता था ( जैसे आज वे पत्ते स्विट्जरलैंड में जमा हो जाते हैं)। अब इन दादाजी का बड़ा पोता अपने दादाजी के साथ धिंगा मुश्ती करता था कि वह वे पत्ते निकाल कर दे दे। दादाजी पत्ते देते नहीं थे, उसे खिलाने के लिए हमारे मित्र से आग्रह करते थे। पर हालत ये थी कि उसे खिलाते तो वह मनमानी हरकतें कर के खेल को बाधित करता था। दादा और दो पोतों का ये खेल कई बार इतना लम्बा होता था कि घर आए अन्य सभी मित्र अपना खेल छोड़ इस छुपे धन को निकालने की दादा और पोतों की कसरत को देखते रहते और समय बीत जाता ( हमारी तो अर्थव्यवस्था ही उस दिन थम जाती थी)। तब तो बचपना था पर आज समझदारी आ गई... अगर आज भी वही खेल खेलने का मन करे तो सोचता हूँ कि उन पोतों और दादा को अकेला छोड़ कम पत्तों को और छाप कर अपनी ताश की ढेरी में डाल कर खेल शुरू कर दूँ। हमारे चलते खेल को देख कर अब वे पोते अपने दादा को साथ ला कर हमारे खेल में झाँकने की भी कौशिश करें तो उनको वह सबक सिखाऊँ कि बस... (बचपन में इन दादा पोतों की धिंगामुश्ती ने हमें खून के आँसू रुलाया था, क्या करते खेलने के लिए घर भी इनका ही था, ताश की जोड़ी भी कुछ सम्पन्न घर के बच्चों की ही थी)। क्या आज भी इस देश में वही दादा और लाडले पोते राज करते हैं? इनको निकाल बाहर कर अपना खेल शुरू क्यों नही कर देते? इस अर्थव्यवस्था में जितने ताश के नोट कम हो गए वे छाप कर और क्यों नहीं डाल देते? इन लोगों पर कड़ी नजर क्यों नहीं रखते कि वे डुप्लीकेट घोषित कर दिया गया वह हिसाब इस अर्थव्यवस्था में दुबारा ना मिला दे। काले धन का खेल केवल इतना ही थोड़े है, असली खेल तो एक और भी खेलते थे कुछ खिलाड़ी हमारे बचपन के खेल में... कुछ चालाक खिलाड़ी पत्ते बांटते समय या तो रंगीन पत्ते अधिक ले लेते थे या वे अपने घर से ही छुपा कर बेकार होगई ताश में से मिलते जुलते डिजाइन के ले कर आते थे। उन नकली ताश के नोट मिलाने वालों को कभी टेलेविजन पर खेलते नही देखते हम लोग। क्या इस खेल में जनता का आकर्षण कम है? सोचो सोचो
No Vocational Education, We want Professionalization of Education.
व्यावसायिक
शिक्षा से पहले हमें शिक्षा का व्यावसायीकरण चाहिए... एक न्यूज पेपर और
टीवी चैनल के लिए जैसे उसका पाठक या श्रोता उत्पाद होता है, जिसे वह
विज्ञापनदाताओं को ले जाकर बेचता है। कोई निर्माता मानो अपनी वस्तु बना कर
बेचता है। उसी प्रकार किसी भी शिक्षण संस्था के लिए उसके विद्यार्थी उसके
उत्पाद है। कोई समय रहा होगा जब इन शिक्षण संस्थानों से निकले उत्पाद की
भारी माँग रही होगी पर आज हालात खराब है। जिन
शिक्षण संस्थानों को अपने भविष्य की चिंता थी उन्होंने प्लेसमेण्ट सेण्टर
खोल लिए क्यों कि अब इस मार्केटिंग फ्रण्ट के बिना माल बिकना मुश्किल हो
रहा था। किसी भी कॉलेज के पाठ्यक्रम की
गुणवत्ता की प्रथम श्रेणी तो ये है कि बिना प्लेसमेण्ट सेल के (विद्यार्थी रूपी उत्पाद का सेल काउण्टर) ही उत्पाद समाज हाथों हाथ स्वीकार कर ले। दूसरे स्तर के कॉलेज, विश्वविद्यालय वे हैं जो प्लेसमेण्ट सेल के जरिये माल बेचें और 100 प्रतिशत बिक जाएं। तीसरे दर्जे के कॉलेज, विश्वविद्यालय वे हैं जो प्लेसमेण्ट सेल खोले और माल बेचने का कोई प्रयास करें और आंशिक सफलता मिल जाए। अब सवाल ये है कि सरकार स्किल डवलपमेण्ट की बात कर रही है तो उसको किसी भी नये उत्पाद सेंटर के खोले जाने से पहले मौजूदा उत्पाद सेंटरों में प्लेसमेण्ट सेंटर खोलकर उनकी बिक्री में सहयोग करना चाहिए। देश इस समय या तो ओवर प्रोडक्शन के संकट से गुजर रहा है क्यों नये उत्पाद सेण्टर खोले जा रहे हैं? या प्रोडक्शन सेण्टर पर गुणवत्ता मानकों की पालना नही की जाती, कचरा उत्पादन किया जा रहा है जिसकी समाज को आवश्यकता ही नही है। कोई समझदारी बरतेगा शिक्षा उद्योग को ठीक से चलाने में?
अरे किसी फैक्टरी में असेम्बली लाइन पर चैन सप्लाई मैनेजमेण्ट से ही कुछ सीख लो। जब तक कोई निश्चित प्लेटफार्म पर निर्धारित टास्क पूरा नही किया जाता अगले प्लेटफार्म पर अगला टास्क पूरा होना मुश्किल हो जाएगा
। अंतिम उत्पाद बिकने योग्य नही रहेगा। सोचो कोई कार इसी तरह की असेम्बली लाइन पर तैयार हो कर आए जिसमें कल पुर्जे आधे अधूरे लगे हों, क्वालीटी वाले ना हो तो रोड पर गाड़ी ले आओगे?
ग्रेडिंग करने का अधिकार किसे होना चाहिए? पहली कक्षा में पढ़े किसी बच्चे का अगली कक्षा में प्रवेश करने से पहले मुल्याँकन का अधिकार किसे होना चाहिए? असेम्बली लाइन पर कारीगर समय पर उपलब्ध ही ना हो, फेक्टरी का मालिक अपने घर की सब्जी लाने के लिए उस कारीगर को भेज दे तो क्या काम सही हो सकेगा? फिर क्यों शिक्षक को शिक्षण कार्य के अलावा अन्य, सरकार के घरेलू काम में लगाया जाता है? अरे राष्ट्रीय चरित्र का विकास करने का सपना दिखाने वालों कम से कम ये तो देखो कि उपभोक्ता बुद्धी ही समाज की लकवाग्रस्त हो गई है। व्यावसायिक लोगों के स्थान पर आपने लुटेरे बैठा रखे हैं जो कचरे के डिब्बे पैक कर के उस पर तरह तरह के उत्पादों के नाम का सर्टिफिकेट चिपका कर बेच रहे हैं।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
गुणवत्ता की प्रथम श्रेणी तो ये है कि बिना प्लेसमेण्ट सेल के (विद्यार्थी रूपी उत्पाद का सेल काउण्टर) ही उत्पाद समाज हाथों हाथ स्वीकार कर ले। दूसरे स्तर के कॉलेज, विश्वविद्यालय वे हैं जो प्लेसमेण्ट सेल के जरिये माल बेचें और 100 प्रतिशत बिक जाएं। तीसरे दर्जे के कॉलेज, विश्वविद्यालय वे हैं जो प्लेसमेण्ट सेल खोले और माल बेचने का कोई प्रयास करें और आंशिक सफलता मिल जाए। अब सवाल ये है कि सरकार स्किल डवलपमेण्ट की बात कर रही है तो उसको किसी भी नये उत्पाद सेंटर के खोले जाने से पहले मौजूदा उत्पाद सेंटरों में प्लेसमेण्ट सेंटर खोलकर उनकी बिक्री में सहयोग करना चाहिए। देश इस समय या तो ओवर प्रोडक्शन के संकट से गुजर रहा है क्यों नये उत्पाद सेण्टर खोले जा रहे हैं? या प्रोडक्शन सेण्टर पर गुणवत्ता मानकों की पालना नही की जाती, कचरा उत्पादन किया जा रहा है जिसकी समाज को आवश्यकता ही नही है। कोई समझदारी बरतेगा शिक्षा उद्योग को ठीक से चलाने में?
अरे किसी फैक्टरी में असेम्बली लाइन पर चैन सप्लाई मैनेजमेण्ट से ही कुछ सीख लो। जब तक कोई निश्चित प्लेटफार्म पर निर्धारित टास्क पूरा नही किया जाता अगले प्लेटफार्म पर अगला टास्क पूरा होना मुश्किल हो जाएगा
। अंतिम उत्पाद बिकने योग्य नही रहेगा। सोचो कोई कार इसी तरह की असेम्बली लाइन पर तैयार हो कर आए जिसमें कल पुर्जे आधे अधूरे लगे हों, क्वालीटी वाले ना हो तो रोड पर गाड़ी ले आओगे?
ग्रेडिंग करने का अधिकार किसे होना चाहिए? पहली कक्षा में पढ़े किसी बच्चे का अगली कक्षा में प्रवेश करने से पहले मुल्याँकन का अधिकार किसे होना चाहिए? असेम्बली लाइन पर कारीगर समय पर उपलब्ध ही ना हो, फेक्टरी का मालिक अपने घर की सब्जी लाने के लिए उस कारीगर को भेज दे तो क्या काम सही हो सकेगा? फिर क्यों शिक्षक को शिक्षण कार्य के अलावा अन्य, सरकार के घरेलू काम में लगाया जाता है? अरे राष्ट्रीय चरित्र का विकास करने का सपना दिखाने वालों कम से कम ये तो देखो कि उपभोक्ता बुद्धी ही समाज की लकवाग्रस्त हो गई है। व्यावसायिक लोगों के स्थान पर आपने लुटेरे बैठा रखे हैं जो कचरे के डिब्बे पैक कर के उस पर तरह तरह के उत्पादों के नाम का सर्टिफिकेट चिपका कर बेच रहे हैं।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
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