कर्म प्रधान है अथवा पितरों का आशीर्वाद?

 प्रश्न :  मनुष्य की आवश्यकताएं महत्वाकांक्षा  और उसके सपने कर्म किए बिना पूरे नहीं होते।  पितृलोक एक अंधविश्वास से अधिक कुछ भी नहीं है आप यह व्यर्थ की चर्चा क्यों प्रसारित कर रहे हैं?

उत्तर : जब कहीं गढ़ा खोदा जाता है तो निकली हुई मिट्टी से पहाड़ अपने आप खड़े हो जाते हैं। और पहाड़ों के टूटने से ही गढ़े उभरते हैं। चेतना के भी दो भंवर बने हुए हैं। जन्म और मृत्यु के वोर्टेक्स में जिस तरह यह आयाम अनुभव में आता है उसी तरह मरणोत्तर आयाम भी अनुभव में आता है। आपको जागते हुए तो स्वप्न याद रहते हैं कि आपने नींद में कोई स्वप्न देखा था। लेकिन नींद में कभी यह याद नही रहता कि आपका जागृत अस्तित्व है। जीवन और मृत्यु के मामले में यह नियम उल्टा है... मृत्यु के बाद तो जीवन काल का बोध रहता है कि जीवन कैसे बीता है परंतु जन्म के साथ ही यह बोध खो जाता है कि पारजगत में क्या था। जिस तरह जागरण और स्वप्न अन्तरसम्बन्धित है दिन के घटनाक्रम का स्वप्न पर असर होता है और सपनों की दुनिया भी हमारे जाग्रत निर्णय पर असर डालती है उसी प्रकार जीवन और मृत्यु भी अन्तरसम्बन्धित है। आपकी आवश्यकता, महत्वाकांक्षा और सपने एक ही जन्म में पूरे नही होते। जिस तरह रात को सोते समय अधूरे काम छोड़ कर विश्राम में चले जाते हो उसी प्रकार अधूरी जिंदगी छोड़ कर जीव मृत्यु रूपी विश्राम में चला जाता है। परंतु जिस तरह नींद आपकी यात्रा/अस्तित्व का अंत नही है उसी तरह मृत्यु भी आपके अस्तित्व/यात्रा का अंत नही है। सत्य के साक्षात्कार के लिए आवश्यकता, महत्वाकांक्षा और सपनों का शांत होना आवश्यक है। नींद और मृत्यु में चैतन्य प्रवेश से ही पितृलोक का बोध हो सकता है। इसका अर्थ यह नही कि बोध न होने तक हम पर पितृलोक का कोई असर नही है। अंधविश्वास कोई बुरी बात भी नही है। जब तक आपको लाभ होता है तब तक अंधविश्वास करते रहें। किसान का विश्वास है कि धरती चपटी है इस विश्वास के सहारे वह खेती करता है। यूक्लिड ज्योमेट्री के सहारे हमने इतना यांत्रिक विकास किया है परंतु अब नॉन यूक्लिड ज्योमेट्री या क्वांटम फिजिक्स के सहारे यांत्रिक मजबूरी से मुक्त हो रहे हैं। याद करिये वे दिन जब मोबाइल फोन नही थे तो इसकी मुफ्त में उपलब्ध सुविधाओं के लिए कितनी यांत्रिक रचनाएं खरीदनी पड़ती?

सुरेश 9929515246

Education?

 एक लोचशील और ऐसी शिक्षा प्रणाली की जरूरत है जो व्यक्ति की निहित क्षमताओंं को उभारने में सहयोगी हो। इससे युवक न केवल अपनी क्षमताओं का समाज में योगदान करें बल्कि सहयोग भी कर सके। निजि और टीम के रूप में उसकी उपयोगिता पर विचार करते हुए ही मुल्यांकन प्रणाली का विकास करना होगा। औद्योगिक युग में युवक को पहले से ज्ञात होता था कि वह किस प्रकार का स्किल सीख कर किस इंडस्ट्री में समायोजित हो जाएगा।

स्किल डवलपमेण्ट के नाम पर सरकार जो कर रही है क्या उसमें बदली परिस्थिति के अनुसार नये स्किल सीखने सिखाने के रास्तों पर विचार किया जाएगा?

समाज में तीव्रगति से निरंतर होने वाले बदलावों के लिए जो स्किल चाहिए क्या वे हमारे नीति निर्माताओं के लिए विचारणीय विषय है?

बदलाव ही वह लक्ष्य है जिसके लिए युवा को स्किल देना होगा। अर्थव्यवस्था में, समाज में निरंतर बदलाव हो रहा है। इस निरंतर बदलाव के अनुकूल जो स्किल सेट चाहिए वह आउट ऑफ डेट नही हो सकता।

रचनात्मकता, निरंतर स्वरूप बदलती समस्याओं का समाधान कर सकने की क्षमता का विकास, सहयोग पाने और देने की तत्परता, सामुहिक हितों के प्रति सजगता, अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ, सांस्कृतिक समझ, भावात्मक लचीलापन, सीखते रहने की ललक, उद्यमिता ये कुछ स्किल सेट है जिनके बिना युवक अधूरा ही रहेगा। सरकार क्या इन सब के लिए कुछ कर रही है?

सीखने और समयानुकूल तत्काल बदलने की भावना का विकास व्यापक मीडिया सहयोग के बिना सम्भव नही है।

क्या हमारे पास वह मैन पावर है जो इन जरूरतों को पूरा कर सके? क्या प्रशासन इतना लचीला है कि वह प्रमाणपत्रों की दिखाई योग्यता से बाहर जाकर भी उपयुक्त मानव संसाधन को इस कार्य के लिए सहयोगी बना सके?