Cherity or Tax?
दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है। मान लीजिए आपका यही कर सलाहकार कर अधिकारी बन जाए या आज जैसा कि प्रचलन में है वास्तविक कर की गणना न करके वे आपके लिए धोखाधड़ी करने में मददगार हों और आपका कर बचाने की एवज में आपसे बढ़ी हुई फीस और रिश्वत लेने लग जाते हैं तो देश के विकास की बात कहाँ तक सच हो सकेगी?
पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित इसी तरह की व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई। आज राज्य आधारित लोक कल्याण अधिक मान्यता पाए हुए है, धर्म आधारित लोक कल्याण व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चर्च और सरकारों में लोक कल्याण की प्रतिस्पर्धा या सहयोग जो दिखाई देता है उसकी एक बड़ी खामी है कि वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता नही है। भारत में सनातन धर्म में और सरकार में वहीं सम्बन्ध बनाए जा सकने का कोई रास्ता खुल जाए तो जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी राज्यों में विकास की प्रतिस्पर्धा करवाना चाहते हैं वही काम धर्म आधारित भी हो सकता है। कर ढ़ाँचे की रचना भी उसी तर्ज पर की जानी चाहिए जिस तर्ज पर चर्च हितों के लिए पश्चिमि जगत अपने देशों में करता है और अन्य देशों को उस कर ढाँचे की रचना के लिए सलाह देता है या बाध्य करता है। दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है। मान लीजिए आपका यही कर सलाहकार कर अधिकारी बन जाए या आज जैसा कि प्रचलन में है वास्तविक कर की गणना न करके वे आपके लिए धोखाधड़ी करने में मददगार हों और आपका कर बचाने की एवज में आपसे बढ़ी हुई फीस और रिश्वत लेने लग जाते हैं तो देश के विकास की बात कहाँ तक सच हो सकेगी? पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित इसी तरह की व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई। आज राज्य आधारित लोक कल्याण अधिक मान्यता पाए हुए है, धर्म आधारित लोक कल्याण व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चर्च और सरकारों में लोक कल्याण की प्रतिस्पर्धा या सहयोग जो दिखाई देता है उसकी एक बड़ी खामी है कि वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता नही है। भारत में सनातन धर्म में और सरकार में वहीं सम्बन्ध बनाए जा सकने का कोई रास्ता खुल जाए तो जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी राज्यों में विकास की प्रतिस्पर्धा करवाना चाहते हैं वही काम धर्म आधारित भी हो सकता है। कर ढ़ाँचे की रचना भी उसी तर्ज पर की जानी चाहिए जिस तर्ज पर चर्च हितों के लिए पश्चिमि जगत अपने देशों में करता है और अन्य देशों को उस कर ढाँचे की रचना के लिए सलाह देता है या बाध्य करता है।
सनातन धर्म में जातीय विवाद सत्ताधीसों द्वारा फैलाया गया विवाद है। असली झगड़ा दान और दक्षिणा का था, है और रहेगा। दान सामाजिक हित के लिए व्यक्ति की त्यागी गई शक्ति है। इस शक्ति का विवेक सम्मत उपयोग करने की एवज में दक्षिणा ली जाती थी। जो वर्ग यह काम करता था वह बाह्मण जाति का एक उपवर्ग था। ये ब्राह्मण और उनके उपवर्ग सनातन है और रहेंगे। भले ही आप इनको किसी और भाषा में किसी और नाम से जान लें। जरा गौर से देखिये... समाज हित में त्यागी गई उस शक्ति का नाम आज टैक्स है, जो इस का संतुलन रखते हैं वे कंसल्टेंसी फीस लेकर कॉर्पोरेशंस और सरकार के बीच मध्यस्थता कर रहे हैं। दान और दक्षिणा में जिस तरह से सीमा रेखा नष्ट हो गई ठीक वैसे ही आज टैक्स और कंसल्टेंसी फीस की सीमा रेखा नष्ट हो गई है। इन कर सलाह कारों ने सदा ही अपने निजी स्वार्थों के कारण समाज हित की उपेक्षा की है। टैक्स (दान) चोरी कर लेने में ये सदा साथ रहे है। इसका नतीजा ये है कि आँकड़ों के अनुसार पिछले मात्र एक वर्ष में मात्र सो धनपतियों ने इतना धन कमाया है जिससे धरती की गरीबा चार बार दूर की जा सकती है। कर सलाहकार उद्योगपतियों के हित के लिए सरकारी नीतियों का निर्माण करने में सहयोग कर रहे हैं ये ब्राहमण के एक उपवर्ग का समाज पर अत्याचार ही तो है। पीडित वर्ग आज भी है, उनकी कनपटियों पर आज भी खोलती धातु डाली जा रही है। जिनके घर में खाने के लिए अनाज नही उनके घर ये खोलती धातु कौन पहुँचा र्हा है?
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है। मान लीजिए आपका यही कर सलाहकार कर अधिकारी बन जाए या आज जैसा कि प्रचलन में है वास्तविक कर की गणना न करके वे आपके लिए धोखाधड़ी करने में मददगार हों और आपका कर बचाने की एवज में आपसे बढ़ी हुई फीस और रिश्वत लेने लग जाते हैं तो देश के विकास की बात कहाँ तक सच हो सकेगी?
पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित इसी तरह की व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई। आज राज्य आधारित लोक कल्याण अधिक मान्यता पाए हुए है, धर्म आधारित लोक कल्याण व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चर्च और सरकारों में लोक कल्याण की प्रतिस्पर्धा या सहयोग जो दिखाई देता है उसकी एक बड़ी खामी है कि वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता नही है। भारत में सनातन धर्म में और सरकार में वहीं सम्बन्ध बनाए जा सकने का कोई रास्ता खुल जाए तो जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी राज्यों में विकास की प्रतिस्पर्धा करवाना चाहते हैं वही काम धर्म आधारित भी हो सकता है। कर ढ़ाँचे की रचना भी उसी तर्ज पर की जानी चाहिए जिस तर्ज पर चर्च हितों के लिए पश्चिमि जगत अपने देशों में करता है और अन्य देशों को उस कर ढाँचे की रचना के लिए सलाह देता है या बाध्य करता है। दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है। मान लीजिए आपका यही कर सलाहकार कर अधिकारी बन जाए या आज जैसा कि प्रचलन में है वास्तविक कर की गणना न करके वे आपके लिए धोखाधड़ी करने में मददगार हों और आपका कर बचाने की एवज में आपसे बढ़ी हुई फीस और रिश्वत लेने लग जाते हैं तो देश के विकास की बात कहाँ तक सच हो सकेगी? पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित इसी तरह की व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई। आज राज्य आधारित लोक कल्याण अधिक मान्यता पाए हुए है, धर्म आधारित लोक कल्याण व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चर्च और सरकारों में लोक कल्याण की प्रतिस्पर्धा या सहयोग जो दिखाई देता है उसकी एक बड़ी खामी है कि वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता नही है। भारत में सनातन धर्म में और सरकार में वहीं सम्बन्ध बनाए जा सकने का कोई रास्ता खुल जाए तो जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी राज्यों में विकास की प्रतिस्पर्धा करवाना चाहते हैं वही काम धर्म आधारित भी हो सकता है। कर ढ़ाँचे की रचना भी उसी तर्ज पर की जानी चाहिए जिस तर्ज पर चर्च हितों के लिए पश्चिमि जगत अपने देशों में करता है और अन्य देशों को उस कर ढाँचे की रचना के लिए सलाह देता है या बाध्य करता है।
सनातन धर्म में जातीय विवाद सत्ताधीसों द्वारा फैलाया गया विवाद है। असली झगड़ा दान और दक्षिणा का था, है और रहेगा। दान सामाजिक हित के लिए व्यक्ति की त्यागी गई शक्ति है। इस शक्ति का विवेक सम्मत उपयोग करने की एवज में दक्षिणा ली जाती थी। जो वर्ग यह काम करता था वह बाह्मण जाति का एक उपवर्ग था। ये ब्राह्मण और उनके उपवर्ग सनातन है और रहेंगे। भले ही आप इनको किसी और भाषा में किसी और नाम से जान लें। जरा गौर से देखिये... समाज हित में त्यागी गई उस शक्ति का नाम आज टैक्स है, जो इस का संतुलन रखते हैं वे कंसल्टेंसी फीस लेकर कॉर्पोरेशंस और सरकार के बीच मध्यस्थता कर रहे हैं। दान और दक्षिणा में जिस तरह से सीमा रेखा नष्ट हो गई ठीक वैसे ही आज टैक्स और कंसल्टेंसी फीस की सीमा रेखा नष्ट हो गई है। इन कर सलाह कारों ने सदा ही अपने निजी स्वार्थों के कारण समाज हित की उपेक्षा की है। टैक्स (दान) चोरी कर लेने में ये सदा साथ रहे है। इसका नतीजा ये है कि आँकड़ों के अनुसार पिछले मात्र एक वर्ष में मात्र सो धनपतियों ने इतना धन कमाया है जिससे धरती की गरीबा चार बार दूर की जा सकती है। कर सलाहकार उद्योगपतियों के हित के लिए सरकारी नीतियों का निर्माण करने में सहयोग कर रहे हैं ये ब्राहमण के एक उपवर्ग का समाज पर अत्याचार ही तो है। पीडित वर्ग आज भी है, उनकी कनपटियों पर आज भी खोलती धातु डाली जा रही है। जिनके घर में खाने के लिए अनाज नही उनके घर ये खोलती धातु कौन पहुँचा र्हा है?
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246