क्या भारत का व्यापारी भारत के शिक्षक से उच्च चारित्रिक मानदण्डों का पालन करता है?

भारत के शिक्षक को भारत के व्यापारी से अधिक नैतिक मानदण्डों की पालना नही करनी चाहिए ? 

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872 और भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 के अनुसार कोई भी अनुबन्ध कर्ता अथवा साझेदार अपने अनुबन्ध अथवा साझेदारी के विपरीत आचरण तब तक नही कर सकता जब तक कि वह अनुबन्ध का एक पक्षकार है अथवा फर्म का साझेदार है। इसके अलावा साझेदार अथवा पक्षकार को साझेदारी अथवा अनुबन्ध के हितों की रक्षा के लिए अन्य शर्तों की पालना भी करना अनिवार्य होता है। 
अनुबन्ध और साझेदारी करने की आजादी के नाम पर वह कोई भी अन्य अनुबन्ध या साझेदारी नही कर सकता जो पूर्व समझौते के खिलाफ हो। उल्लंघन की दशा में दूसरे पक्षकारों को क्षतिपूर्ति का अधिकार है।

अब सूचना के अधिकार के तहत देश के केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालयों और राज्य शिक्षा मंत्रालयों से ये जानना जरूरी है कि वे शिक्षक की नियुक्ति के अनुबन्ध पत्र में एक आदर्श समाज की रचना में मददगार शिक्षक से किस तरह की अपेक्षाएं करते हैं। क्या नैतिक रूप से व्यापारी से भी कम चारित्रिक गुणों वाले नागरिकों को वे शिक्षक के रूप में नियुक्ति दे रहे है? अगर हाँ, तो फिर सरकार बताए कि वे अपने शिक्षा तंत्र के जरिये किस प्रकार की पीढि का निर्माण करने के लिए संकल्पित है?  शिक्षा जगत के लोग अपने बच्चों को सरकारी संस्थानों में न पढ़ा कर शिक्षा विभाग के साथ किए गए अनुबन्ध का सीधा सीधा उल्लंघन कर रहे हैं। अगर सेवा शर्तों में ये उल्लेख नही है तो ये नियुक्तियाँ अनुबन्ध के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ किया गया अनुबन्ध है जो व्यर्थ है।   

क्यों ना समस्त वर्तमान कार्यरत अध्यापकों की नोकरी समाप्त करदी जाए जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढा कर अनुबन्ध अधिनियम की व्यवस्थाओं का उल्लंघन कर रहे हैं? 

---सरकारी स्कूलों के लिए सरकार तरह तरह की योजनाएं लाकर शिक्षा के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा कर लेने का श्रेय ले लेती है परंतु सवाल ये है कि प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक और अब तो महाविद्यालय स्तर पर सरकारी स्कूलों में पंजीयन की मात्रा कितनी है? जो भी परिवार अच्छी शिक्षा के लिए आर्थिक भार उठा सकता है वह सरकारी विद्यालयों की तरफ मुँह भी नही करना चाहता।

सरकारी कर्मचारी भी अपनी शैक्षिक व्यवस्था पर यकीन नही करते, उनके बच्चे भी चुनाव की आजादी के नाम पर सरकारी विद्यालय छोड़ कर निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं। प्रश्न ये है कि क्या वे अपने घर में बना खाना छोड़्कर रोज होटल में महंगा खाना खाने जाते हैं? अपनी आजादी का उपयोग वे घर पर भी क्यों नही करते? सामुहिक उत्तरदायित्व की भावना किस बेशर्म तर्क के सहारे हम त्याग देते हैं ये एक विचारणीय विषय है। घर के बने खाने की तो हम प्रशंसा करते हैं, कभी कभार मित्रों को भी बुलाते हैं, असली आजादी तो ये है कि आप अपने संस्थान में अन्य लोगों को भी आमंत्रित कर के अपने कार्य का प्रदर्शन कर पाएं।

कम से कम शिक्षक को तो अनिवार्य रूप से अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढाना ही चाहिए। अन्यथा उसे शिक्षक पद से भी त्यागपत्र दे देना चाहिए। व्यवस्था से अगर शिकायतें है तो उसे अपने बच्चे के लिए रोज उस व्यवस्था से संघर्ष करना ही समाधान होना चाहिए, ना कि अपने बच्चे को किसी और प्राइवेट स्कूल में पढाना। या फिर वह अपने विद्यालय की मार्केटिंग कर के साबित करे कि वहाँ उपयुक्त गुणवत्ता और पंजीयन है। किसी परिवार में भी वह रोज खाना खाने से बचना चाहता है तो तलाक लेना ही उचित होगा ना? किसी को लगता है कि बच्चे के अन्यत्र अध्ययन अगर आवश्यकता है तो शिक्षा विभाग के उच्चतर अधिकारियों के सामने अपना पक्ष रख कर उसे अपने बच्चे को अन्यत्र पढाने की अनुमति लेनी चाहिए।