काला धन काला धन हमने तो बचपन में खूब खेला है। राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, उद्योगपतियों, धर्मगुरूओं का इस खेल से अभी पेट नही भरा। ये खेल भी क्रिकेट की तरह से अच्छे दर्शक बटोर लेता है इसलिए टेलीविजन पर इसे खूब दिखाया जाता है। इस खेल को कोई भी अपने घर पर दस पाँच दोस्तों के साथ खेल सकता है। बस शर्त ये है कि एक बच्चा अपने घर में किसी बुजुर्ग दादा, दादी, नाना, नानी का लाडला हो। अब खेल के नियम सीख लीजिए... ताश की दो चार जोड़िया मिला लीजिये। कुडीमार कहते थे हम तो जिस खेल के लिए तैयारी करते थे (आप क्या कहते थे आप जानो)। खेल समाप्त होते ही सारी ताश की जोड़िया अलग अलग कर के रखनी होती थी। ताकि बड़े बुजुर्ग लोग जब ताश उठाए तो उनको बावन पत्ते तुरंत मिल जाए। अब किसी ऐसे घर में जा कर बैठते थे जिसमें माता पिता को बच्चों के इकठ्ठा होकर खेलने में आपत्ति ना हो। इस सरल से खेल को खेलने के लिए अक्षर, गिनती का ज्ञान और ताश के पत्ते पहचानने तक की समझ पर्याप्त होती है। कुडीमार ( सब अपनी ढेरी से एक एक पत्ता फैंकते हैं जब दो पत्ते मैच कर जाते हैं तो जिसने बाद में पत्ता फैंका होता है वह ढेरी उठा कर ले जाता है) जिसके पत्ते समाप्त हो जाते थे वह हार जाता था। इस खेल में एक बैंक प्रणाली भी थी। जिस तरह से सोना चान्दी या घर आदि गिरवी रख कर लोग अपनी जरूरतों के लिए धन बैंक से लेते हैं वैसे ही ताश के रंगीन पत्तों को हर खिलाड़ी खेल के शुरू में ही सम्पत्ति की तरह से छुपा कर रख लेते हैं। जब 1-10 के पत्ते खेलते खेलते कोई जब सारे पत्ते खो देता तो जिसके पास अधिक पत्ते होते थे वह दूसरे के रंगीन पत्तों के बदले अलग अलग मुल्यों के अनुसार उसे धन (1-10 के पत्ते दे देता था)। अब ये सब ठीक ठीक चलता रहे तो जिन्दगी मजे से कट जाती है पर बीच में कभी कभी कालाधन कालाधन खेलना पड़ जाता था... ये बड़ा तकलीफ देने वाला होता था। होता ये था कि जिस घर में बैठ कर खेलते थे उस घर में एक दूधमुँहा बच्चा अपने दादाजी का लाडला था। वह खेलने की जिद करता था। ना खिलाने पर वह कुछ पते चुपाकर दादाजी की गोद में छुप जाता था ( जैसे आज वे पत्ते स्विट्जरलैंड में जमा हो जाते हैं)। अब इन दादाजी का बड़ा पोता अपने दादाजी के साथ धिंगा मुश्ती करता था कि वह वे पत्ते निकाल कर दे दे। दादाजी पत्ते देते नहीं थे, उसे खिलाने के लिए हमारे मित्र से आग्रह करते थे। पर हालत ये थी कि उसे खिलाते तो वह मनमानी हरकतें कर के खेल को बाधित करता था। दादा और दो पोतों का ये खेल कई बार इतना लम्बा होता था कि घर आए अन्य सभी मित्र अपना खेल छोड़ इस छुपे धन को निकालने की दादा और पोतों की कसरत को देखते रहते और समय बीत जाता ( हमारी तो अर्थव्यवस्था ही उस दिन थम जाती थी)। तब तो बचपना था पर आज समझदारी आ गई... अगर आज भी वही खेल खेलने का मन करे तो सोचता हूँ कि उन पोतों और दादा को अकेला छोड़ कम पत्तों को और छाप कर अपनी ताश की ढेरी में डाल कर खेल शुरू कर दूँ। हमारे चलते खेल को देख कर अब वे पोते अपने दादा को साथ ला कर हमारे खेल में झाँकने की भी कौशिश करें तो उनको वह सबक सिखाऊँ कि बस... (बचपन में इन दादा पोतों की धिंगामुश्ती ने हमें खून के आँसू रुलाया था, क्या करते खेलने के लिए घर भी इनका ही था, ताश की जोड़ी भी कुछ सम्पन्न घर के बच्चों की ही थी)। क्या आज भी इस देश में वही दादा और लाडले पोते राज करते हैं? इनको निकाल बाहर कर अपना खेल शुरू क्यों नही कर देते? इस अर्थव्यवस्था में जितने ताश के नोट कम हो गए वे छाप कर और क्यों नहीं डाल देते? इन लोगों पर कड़ी नजर क्यों नहीं रखते कि वे डुप्लीकेट घोषित कर दिया गया वह हिसाब इस अर्थव्यवस्था में दुबारा ना मिला दे। काले धन का खेल केवल इतना ही थोड़े है, असली खेल तो एक और भी खेलते थे कुछ खिलाड़ी हमारे बचपन के खेल में... कुछ चालाक खिलाड़ी पत्ते बांटते समय या तो रंगीन पत्ते अधिक ले लेते थे या वे अपने घर से ही छुपा कर बेकार होगई ताश में से मिलते जुलते डिजाइन के ले कर आते थे। उन नकली ताश के नोट मिलाने वालों को कभी टेलेविजन पर खेलते नही देखते हम लोग। क्या इस खेल में जनता का आकर्षण कम है? सोचो सोचो