सनातन धर्म के मंदिरों की दुर्दशा का और समाज का रवैया.. एक किस्सा --- आज गाँव के मंदिर में मंदिर के ट्रस्टी बंबई से पधारे एक जातक को लेकर आए। साथ में बाजार से आते हुए चार नींबू भी ले आये। जातक को मंदिर की भव्यता, दिव्यता और उसका महिमा मंडन कर के आराम से जातक को बैठाया गया। फिर ट्रस्टियों ने पुजारी जी को आदेश दिया कि नींबू लाएं हैं जरा शिकंजी बना लो। पुजारी ने शिकंजी बनाने से मना कर दिया। ट्रस्टियों ने फोन कर कर एक और ट्रस्टी को बुला लिया ताकि पुजारी के व्यवहार से दूसरे ट्रस्टियों को अवगत कराया जा सके। आकार दूसरे ट्रस्टी ने भी वैसा ही व्यवहार किया। पुजारी ने फिर मना कर दिया। अब जातक के सामने तमाशा न हो इसलिए ट्रस्टी खुद शिकंजी बनाने लगे। पुजारी से प्रेम से सहयोग मांगने की कोशिश की पर उसने फिर मना कर दिया। बल्कि पुजारी ने ट्रस्टियों से ये भी कहा कि बर्तन साफ करके जाना परंतु ट्रस्टी बर्तन कैसे साफ करते जिस पुजारी को अपनी पैरों की धूल मानते हैं वह उनका आदेश ही नहीं मानता। वे बिना बरतन साफ किए मंदिर से जातक के साथ चले गए। जब आपका नोकर आपके लाए अतिथि के सामने ऐसा व्यवहार करे तो आप तो अपमानित ही अनुभव करेंगे न? अब जातक अथवा मंदिरों के दर्शनार्थियों की दृष्टि से इस प्रकरण पर विचार करिए। वह जातक अगर सच में भगवान के घर आया है तो उसे साफ दिखाई दे रहा है कि मंदिर के देवता अपने पुरोहित का मान सम्मान नहीं करा सकते। एक पुरोहित की यह प्रतिष्ठा है कि पैसे और सत्ता के नशे में ट्रस्टी लोग उसे जूते की धूल समझते है तो सोचिए उस मंदिर में स्थापित देव प्रतिमा के प्रति उनके मन में सम्मान होने का भाव सच्चा है? ढोंग है? ये लोग कपटी है। इनका धर्म से कोई वास्ता नहीं है। एसे लोग समाज की भावनाओं का शोषण करने के लिए ईंट गारे का एक भव्य स्थान बना कर उससे और अधिक बड़ा महल बनाने की जुगाड़ कर रहे हैं। सोचने लायक बात है कि मंदिर में साधन नहीं है इसलिए एक पुजारी को श्रद्धा के अनुसार मानदेय देकर आप रखते हैं। आप इस मंदिर की चेतना के विकास के लिए क्या कर रहे है? इस प्रकरण के आधार पर आप देश में स्थापित मंदिरों और उनमें बैठे हुए पुजारियों की दुर्दशा का अनुमान कर सकते है। कोई भी चेतना सम्पन्न आदमी मंदिर में पुजारी नहीं बनाना चाहेगा। वहाँ साधक नहीं ठहर सकते। वहाँ केवल रोटी के लिए लाचार भिखमंगे ब्राह्मणों की जरूरत है। जो ट्रस्टियों की ठोकरों में रह सके। अब आइए बात करते हैं सरकार की इन मंदिरों की आमदनी पर नजर क्यों रहती है? सैंकड़ों / हजारों सालों से स्थापित जिन मंदिरों में करोड़ों की आय है वे एसे ही कपटी पारिवारिक ट्रस्ट के हाथ में है। जिनका अपने सनातन धर्म से कोई वास्ता नहीं। खुद उनकी नजर में साधना का कोई सम्मान नहीं। चेतना के विज्ञान का कोई सम्मान नहीं। तो फिर समाज उनके साथ कैसे होगा? वे भी अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा के लिए दर्शन कर मंदिर से लौट आएंगे। सामाजिक जुड़ाव न होगा तो नए मंदिर पनपेंगे नहीं और पुराने मंदिरों पर सरकार में बैठे पिशाचों की नजर रहेगी। मूर्तियों की चोरियाँ होगी, गैर धर्मी लोग ट्रस्ट में बैठेंगे। लूट और शोषण किसको पसंद नहीं? इस धंधे में धर्मों से ऊपर उठ कर सब साथ साथ है। शर्म आनी चाहिए समाज को जो कपट को अपनी सामाजिक कुशलता मानता है और जन भावनाओ से खिलवाड़ करता है।