सनातन धर्म तो बहती विशाल नदी की तरह से है जिसका अनंत धाराओं से जन्म होता है और जब समुद्र में मिलती है तो भी, जैसे सुन्दरवन में होता है, अनंत धाराओं में बंट कर विराट समुद्र में समा जाती है। उद्गम भी विराट आकाश से बरसती फुहार से और मिलन भी विराट सागर से। इस सनातन धर्म की नदी से बाहर कोई घाट नही बनाया जा सकता क्यों कि कोई दूसरी नदी हो ही नही सकती। चेतना की अनंत धाराओं से आरम्भ होने वाली ये नदी चेतना की अनंत धाराओं में बंट कर वापस चेतना में विलीन हो जाती है। मार्ग में जिसको जहाँ सूझ जाता है वह वहाँ घाट बना लेता है। अपने घाट पर विश्राम करने के लिए आगंतुक को निमंत्रण देता है। इन घाटों को आप सम्प्रदाय के नाम से जान सकते हैं। जो इस सनातन बहती नदी का गुणगान सुनाता है वह आपके सफर का सहयोगी है जो अपने घाट का गुणगान करके आपको बान्धना चाहता है वह आपका शिकारी है। बस धार्मिक और अधार्मिक में यही अंतर है। झगड़े तो घाट की सीमाओं के अतिक्रमण के हैं या घाट की सीमाओं को बढ़ाने के लिए है।