पत्थर की मूर्ति देखकर के जब किसी में कामवासना जाग सकती है तो क्या भगवान का दिव्य स्वरूप पत्थर में उकेरा हुआ देख कर के अंदर से मन मैं दिव्य भावना नहीं जाग सकती?
जो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं उनके लिए यह सशक्त तर्क है। धर्म ग्रंथ किसी भी समुदाय का हो वस्तुतः एक किताब ही तो है। जिस पर प्रिंटिंग प्रेस से स्याही में कुछ छपा हुआ है। भौतिक रूप से उसका अस्तित्व कागज और स्याही के अलावा और कुछ नहीं है।
और इस किताब को कोई अन्य धर्मावलंबी अपमानित करें तो दंगा फसाद हो जाते हैं। लोग मरने मारने पर उतर जाते हैं। तो फिर लोग मूर्तियों का विरोध/अपमान क्यों करते हैं?