पितृकुल की रचना वे लोग बेहतर समझ सकते हैं जो बैंकों का क्लियरिंग सिस्टम, नेटवर्क मार्केटिंग, स्टॉक मार्केट का सेटलमेंट सिस्टम, एयर ट्रैफिक का ग्लोबल स्ट्रक्चर या रेलवे कंट्रोल सिस्टम जानते हैं। थोड़े से अभ्यास से धरती के एक ऐसे सूक्ष्म आयाम को जाना जा सकता है जिससे अधिकांश मानव जाति अनजान है। बॉलीवुड मूवीज जैसे... डिफेंन्डिंग योर लाइफ, घोस्ट टाउन, फाइव पर्सन आई मेट इन हेवन, इन टाइम जैसी मूवीज बनाना पितृ लोक की समझ बिना संभव नही है। सनातन धर्म की प्रत्येक जाति, सम्प्रदाय अपने बच्चों की कमर, बाजू या गले में कोड़ी, चांदी और तांबे के प्रतीक पहनाते थे। ये सब अकारण नही था। संकेत के लिए आप देखिए कि एयर ट्रैफिक का लगभग 90% असेट हर समय हवा में रहता है अगर दुनिया का एयर ट्रैफिक हड़ताल करने की सोचे तो धरती पर इतना एयरक्राफ्ट्स के लिए बेस नही कि उसे ग्राउंड किया जा सके। आज स्टॉक मार्केट का सेटलमेंट सिस्टम क्रैश कर जाए तो दुनिया भर के कर्म भुगतान धराशायी हो जाए। प्रकृति की सेल्फ इंटिलिजेंस इन व्यवस्था से अनन्त शुद्धि के साथ है।
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ब्राह्मण एकता?
नफरत की बात करने वाले कथित ब्राह्मण राक्षस है, वे वर्ण व्यवस्था के अंग नही है। अन्य जातियों को इनके बहकावे में नही आना चाहिए।
जो इस विचार से सहमत न है, न ही इस दिशा में काम कर रहे वे राक्षस है। उन पर वर्ण व्यवस्था लागू ही नही होती।
ब्राह्मण एकता की बात ना करें
�ब्राह्मण, एकता का विषय नहीं हो सकता।
�यह तो सहज आकर्षण का विषय होना चाहिए।
�अगर आप देशकाल सापेक्ष मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकते हैं तो आप के प्रति सहज आकर्षण होगा।
�एकता का अर्थ है सब के गले में एक ढोल बजे।
�परंतु ब्राह्मण संगठन एक आर्केस्ट्रा के रूप में होगा।
�जातीय ब्राह्मणत्व का दायित्व लेना होगा।
�समझदार ब्राह्मण अन्य जातियों के शक्तिशाली नेतृत्व से संपर्क स्थापित करें और उनका मार्गदर्शन करें।
�अपनी चुनी हुई जाति के लोगों का जातीय गौरव कैसे बढ़ाएं उस पर उनको रणनीति दे।
�अन्य जातियों के भीतर वसुधैव कुटुंबकम की भावना का संचार करें।
�परंतु यह महज सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे की समझ से ही संभव नहीं होगा।
�जीवन और मृत्यु जैसे चेतनागत विषयों के वैज्ञानिक प्रतिपादन से हर व्यक्ति अपना निजी विकास चाहता है।
�इस इच्छा के कारण से वसुधैव कुटुंबकम की सहज वृति हर जाति के नागरिक विकसित होगी।
�अच्छाई की प्रतिस्पर्धा के अंपायर बने।
�प्रत्येक जाति को अन्य जातियों का समर्थन लेने के लिए अपनी जाति के दायरे से बाहर निकलकर सामाजिक रचना में भाग लेना होगा।
�इस उदारता का अभाव ही उनको शुद्र बनाता है।
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सुरेश कुमार शर्मा
मनो परामर्शक
99295 15246
योगियों के लिए भी पितृ कुल आवश्यक
प्रश्न: भगवान की भक्ति करने वाले या ध्यानी व्यक्ति को पितृलोक से जुड़ने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर: इसका उत्तर पहले भारतीय शास्त्रीय संदर्भ में जान लेते हैं जिनकी इन शास्त्रों पर आस्था है उनको सरलता से समझ आएगा। फिर उनकी भाषा में भी बात कर लेंगे जिनको या तो सनातन धर्म का कोई ज्ञान नही है अथवा कुछ विज्ञान पढ लेने के कारण इन ग्रंथों को छूते हुए शर्म आती है। भक्ति और ध्यान जैसे भारी भरकम शब्दों के साथ जीने वाले अधिकांश लोग जीवन से मुँह मोड़ें हुए हैं। पितृलोक में दो भाव के लोग बोध पूर्वक जुडेंगे... मनोकामना पूर्ति के लिए जनसाधारण और कर्तव्य पूर्ति के किए भक्त अथवा ध्यानी। (एक बात ध्यान रहे कि भक्त, ध्यानी या जनसाधारण इस नेटवर्क से जुड़ा ही है, जिस प्रकार कोई मछली सागर से अछूती नही है उसी प्रकार आप इस रचना को स्वीकार करें या अस्वीकार परंतु आपके अस्तित्व से इस तंत्र का गहरा सरोकार है) सचमुच ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति कर्तव्य भाव से पितृऋण उतारने के काम में जीवन लगा देता है, भक्ति में डूबा व्यक्ति भी सत्य का साक्षात्कार करता है तो साक्षी भाव कहिये या कर्तव्य भाव से पितृऋण चुकाता है। ऐसे लोगों को विभूति कहा जाता है अर्थात वे साधक जो पाँच भूत के प्रपंच का अतिक्रमण कर चुके। परंतु क्या वे सुबह शाम की रोटी आदि की दैहिक आवश्यकता पूरी नही करते? पाँच भूत प्रपंच से उनकी भौतिक देह तो बंधी ही है। भगवान राम ने अवतारी होते हुए भी पिता का पिंडदान किया, सीता ने अपने श्वसुर का तर्पण किया। क्या आवश्यकता थी उनको जिनके स्पर्श मात्र से पाषाण प्रतिमाएँ मुक्त होने के किस्से है। आप तलवार चलाना सीख गए इसका मतलब यह नही कि जीवन में सूई का महत्व खत्म हो गया। भगवान कॄष्ण तो पूर्ण कलावतारी कहलाते हैं पर उनके सारथी होते हुए भी युद्ध में अर्जुन के रथ की ध्वजा पर हनुमान जी क्यों?
सोशल इंजिनियरिंग के आधार पर आप इसे इस तरह समझें कि ... मान लीजिए कि आपको लगता है कि भारत के राष्ट्रपति से आपकी मित्रता हो जाए तो मेरे जीवन के सारे संकट सरलता से ह्ल हो जाएंगे। आपके लिए वही भगवान है। यह सम्बंध आपका हो जाता है। अब आप अपने गांव में अपनी जमीन का अवैध कब्जा छुडाना चाहते हैं। आपकी इच्छा पर गृह मंत्रालय से आदेश आया और जिला प्रशासन आपके आदेश पर कब्जा छुड़वा सकता है। परंतु कर्मभोग देखिए कि कब्जेदार का रिश्ता आपके फुफा जी से है, आपकी बुआ आकर कहती है कि जमीन का सुख तो ले लोगे पर उस घर में मेरी जिंदगी नर्क हो जाएगी मैं वहाँ नही रह पाउंगी इसलिए मुझे अब यहीं शरण दे दो। सोचिए, राष्ट्रपति से सम्बंध होते हुए भी आपके भावलोक में एक दर्द बना रहेगा। कारण आपको चुनना है कि जमीन हेतु बनेगी या बुआ? पितृलोक इसी तानेबाने का नाम है। आपके आयुष्यकर्म / पितृऋण आपको कुशलता पूर्वक निपटाने ही हैं।
प्रेत योनि के पितृ और देव योनि के पितृ
जिनके जीवन में अपने कुल के प्रेतपितृ मंडराए रहते हैं वे दिन रात बेचैनी, बरबादी, निंदा, भय, अपराध, विरोध, घृणा के विचारों से घिरे रहते हैं। यह प्रेतयोनि का आहार है। राक्षस कुल से यह आहार इनको मिलता रहता है। दुनिया में राक्षस समाज संस्थागत तरीके से मनुष्य जीवन में यह आहार पहुंचा रहा है।
जिनके जीवन में अपने कुल के देवपितृ मंडराए रहते हैं वे प्रेम, रचनात्मकता, मित्रता, करुणा, सद्कर्म, समाधान, सहयोग, एकता आदि विचारों से घिरे रहते हैं। यह देवयोनि का आहार है। दुनिया में इस समय संस्थागत तरीके से इस आहार की पूर्ति का तंत्र नष्ट हो चुका है। देवपितृ का जिनके जीवन में सहयोग है ऐसे लोग भयंकर रोग से भी ग्रस्त हो तो नमक की चुटकी से भी ठीक हो जाते हैं परंतु जिन पर प्रेतपितृ हावी होते हैं तो साधारण जुकाम भी लाखों रूपये खर्च करा देता है महीनों तक पीड़ा भोगता है और उसे अंत तक सच्चाई का पता नही चलता कि आखिर हुआ क्या था। प्रेतपितृ जिन पर हावी है वे सगे भाई बंधु से भी वैर पाल कर जीवन नर्क बनाए रखते हैं देवपितृ का जिनके जीवन में सहयोग है वे शत्रु के साथ भी मैत्री व्यवहार रखते हैं क्यों कि वे जानते हैं कि मेरे ही पूर्वज आज किसी न किसी कुल में देह धारण किए हुए हैं। भारत में जाति और वर्ण व्यवस्था को ठीक से समझना है तो पितृलोक की रचना को ठीक से समझ कर हमें लोकांतर सहयोग के लिए आगे आना होगा। वरना जीवन कठिन से कठिन होता जाएगा। सामाजिक तानाबाना आपके लिए सहयोगी हो इसके लिए घर के आगे खड़े बिखारी, शत्रु, विधर्मी, विजातीय को भी इसी भाव से देखना होगा कि जैसे यह मेरे ही कुल से निकला देहधारी है जो किसी न किसी कर्ज के निपटारे के लिए आया है। आध्यात्मिक नेटवर्क की रचना इस पूरे विज्ञान के विस्तार के लिए की गई है। आपके जीवन में पितृलोक से सहयोग के हाथ बढ़े और प्रेतयोनि की शक्तियाँ आप पर कम हावी हो तो जीवन सरल हो।
गायत्री उपासना और पितृ कुल
प्रश्न: आध्यात्मिक दृष्टी से पितृलोक के गुण दोषों में दखल या समस्याओं के समाधान का दावा क्या प्रत्येक गायत्री उपासक कर सकता है? कितने जप करने पर इस तरह की क्षमता जाग जाती है?
उत्तर: गायत्री उपासना को लोग प्राय: गायत्री जप तक सीमित रख कर देखते हैँ। पर यह पर्याप्त नही है। इसे आधुनिक तकनीक के जमाने में समझना और सरल हो गया है। एक एंड्रोयड फोन जिसमें आवश्यक तकनीकी फीचर हो उन फोन को बोल कर आदेश दिया जा सकता है। पात्र व्यक्ति के अंगुठे के स्पर्श से फोन काम करने लग जाता है। यहां तक कि पात्र व्यक्ति की आंख पहचान कर ही मोबाइल फोन आदेश की पालना करता है। क्या बेसिक फोन के सामने करोड़ बार भी किसी व्यक्ति का नाम लेकर उससे बात कर सकोगे? गायत्री मंत्र भी उपयुक्त यांत्रिक रचना के साथ काम में लिया जाने वाला ध्वनि संकेत है। ऐसा समझिए कि जैसे यह किसी राष्ट्रपति का नम्बर है जो आपको असाधारण काम कर सकने की क्षमता देता है। चेतना के जगत में यह उस देवीशक्ति का नम्बर है जो पितृलोक ही नही देवी क्षमता भी जगा देती है। परंतु, आवश्यक रचना हो तब।
पितृलोक में दखल देने के लिए प्रकृति की द्वंद्द्वात्मक शक्तियों के परे चेतना की शुद्ध अवस्था का अनुभव चाहिए। इससे प्रकृति की स्त्रैण और पौरुष उर्जा का ज्ञान होगा। धरती के प्राणी जगत में छाया योन व्यवहार और प्रजनन पर्यावरण यहां के पितृलोक का निर्माण करता है। अनेक जन्मों की हमारी शृंखला में फैला कर्मभोग का यह लोक और पितृलोक इसी व्यवहार और पर्यावरण का विस्तृत आयाम है। इसकी सम्यक समझ और अनुभुति बिना यहाँ अपात्र व्यक्ति का रतिभर भी दखल सम्भव नही है। पितृलोक में स्त्री पुरुष सम्बंध एक आवश्यकता है, देवलोक में यह सम्बंध विलास हो जाता है। कुंडलिनी विज्ञान की दॄष्टि से आवश्यकता मूलाधार का विषय है और विलास सहस्रार का विषय है। नासमझी के कारण आजकल तंत्र के नाम पर धरती पर भारी उथलपुथल मची है जिससे पितृलोक भी अछूता नही है। कहने का अर्थ है कि मनुष्य जाति अपने हाथों कोढ़ पैदा कर रही है और पितृलोक से उसे खाज मिलनी शुरु हो जाती है। कोढ़ में खाज का यह दु:ख मनुष्य अपने कर्मों से भोग रहा है। ऐसे में गायत्री साधकों की इस समय भारी आवश्यकता है पर गायत्री साधना गायत्री जाप तक सीमित नही है।
वशीकरण
(कुछ फेसबुक मित्र के फोन है कि क्या यह उपचारित यंत्र तांत्रिक पद्धति से तैयार किया गया है? शत्रुनाश कर देगा?)
पितृकुल विज्ञान के विस्तार के लिए वॉलंटियर्स
🙏🙏🙏🙏आज भी ब्राह्मण छाती ठोक कर सम्मान पा सकता है। क्या आप तैयार है?
जो देवी देवता अपने पुजारी का पेट नहीं भर सकते ..
सनातन धर्म के मंदिरों की दुर्दशा का और समाज का रवैया.. एक किस्सा --- आज गाँव के मंदिर में मंदिर के ट्रस्टी बंबई से पधारे एक जातक को लेकर आए। साथ में बाजार से आते हुए चार नींबू भी ले आये। जातक को मंदिर की भव्यता, दिव्यता और उसका महिमा मंडन कर के आराम से जातक को बैठाया गया। फिर ट्रस्टियों ने पुजारी जी को आदेश दिया कि नींबू लाएं हैं जरा शिकंजी बना लो। पुजारी ने शिकंजी बनाने से मना कर दिया। ट्रस्टियों ने फोन कर कर एक और ट्रस्टी को बुला लिया ताकि पुजारी के व्यवहार से दूसरे ट्रस्टियों को अवगत कराया जा सके। आकार दूसरे ट्रस्टी ने भी वैसा ही व्यवहार किया। पुजारी ने फिर मना कर दिया। अब जातक के सामने तमाशा न हो इसलिए ट्रस्टी खुद शिकंजी बनाने लगे। पुजारी से प्रेम से सहयोग मांगने की कोशिश की पर उसने फिर मना कर दिया। बल्कि पुजारी ने ट्रस्टियों से ये भी कहा कि बर्तन साफ करके जाना परंतु ट्रस्टी बर्तन कैसे साफ करते जिस पुजारी को अपनी पैरों की धूल मानते हैं वह उनका आदेश ही नहीं मानता। वे बिना बरतन साफ किए मंदिर से जातक के साथ चले गए। जब आपका नोकर आपके लाए अतिथि के सामने ऐसा व्यवहार करे तो आप तो अपमानित ही अनुभव करेंगे न? अब जातक अथवा मंदिरों के दर्शनार्थियों की दृष्टि से इस प्रकरण पर विचार करिए। वह जातक अगर सच में भगवान के घर आया है तो उसे साफ दिखाई दे रहा है कि मंदिर के देवता अपने पुरोहित का मान सम्मान नहीं करा सकते। एक पुरोहित की यह प्रतिष्ठा है कि पैसे और सत्ता के नशे में ट्रस्टी लोग उसे जूते की धूल समझते है तो सोचिए उस मंदिर में स्थापित देव प्रतिमा के प्रति उनके मन में सम्मान होने का भाव सच्चा है? ढोंग है? ये लोग कपटी है। इनका धर्म से कोई वास्ता नहीं है। एसे लोग समाज की भावनाओं का शोषण करने के लिए ईंट गारे का एक भव्य स्थान बना कर उससे और अधिक बड़ा महल बनाने की जुगाड़ कर रहे हैं। सोचने लायक बात है कि मंदिर में साधन नहीं है इसलिए एक पुजारी को श्रद्धा के अनुसार मानदेय देकर आप रखते हैं। आप इस मंदिर की चेतना के विकास के लिए क्या कर रहे है? इस प्रकरण के आधार पर आप देश में स्थापित मंदिरों और उनमें बैठे हुए पुजारियों की दुर्दशा का अनुमान कर सकते है। कोई भी चेतना सम्पन्न आदमी मंदिर में पुजारी नहीं बनाना चाहेगा। वहाँ साधक नहीं ठहर सकते। वहाँ केवल रोटी के लिए लाचार भिखमंगे ब्राह्मणों की जरूरत है। जो ट्रस्टियों की ठोकरों में रह सके। अब आइए बात करते हैं सरकार की इन मंदिरों की आमदनी पर नजर क्यों रहती है? सैंकड़ों / हजारों सालों से स्थापित जिन मंदिरों में करोड़ों की आय है वे एसे ही कपटी पारिवारिक ट्रस्ट के हाथ में है। जिनका अपने सनातन धर्म से कोई वास्ता नहीं। खुद उनकी नजर में साधना का कोई सम्मान नहीं। चेतना के विज्ञान का कोई सम्मान नहीं। तो फिर समाज उनके साथ कैसे होगा? वे भी अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा के लिए दर्शन कर मंदिर से लौट आएंगे। सामाजिक जुड़ाव न होगा तो नए मंदिर पनपेंगे नहीं और पुराने मंदिरों पर सरकार में बैठे पिशाचों की नजर रहेगी। मूर्तियों की चोरियाँ होगी, गैर धर्मी लोग ट्रस्ट में बैठेंगे। लूट और शोषण किसको पसंद नहीं? इस धंधे में धर्मों से ऊपर उठ कर सब साथ साथ है। शर्म आनी चाहिए समाज को जो कपट को अपनी सामाजिक कुशलता मानता है और जन भावनाओ से खिलवाड़ करता है।
आज के कबीर आगे आएं ..
वास्त्विक सत्य (अब रूपक बदलने होंगे)
सीता का त्याग
प्रश्न: धोबी के कहने पर राम ने सीता का त्याग क्यों किया?
बीमा
आइए आपको बीमा उद्योग के जन्म की कहानी बताता हूं। जो बाजार में ऑप्शन ट्रेडिंग के रूप में आज आपके सामने है। बीमा उद्योग का समुद्री जहाजों के द्वारा किए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय व्यापार से बहुत गहरा संबंध है। व्यापारी जब माल लादकर एक देश से दूसरे देश में लेकर जाते थे तो रास्ते में समुद्री लुटेरे उनको लूट लेते थे। सुरक्षा और आक्रमण के नाम पर जान और माल की भारी क्षति होती थी। समुद्री डाकुओं के परिवार जन व्यापारी के जहाजों को सुरक्षित जाने देने के लिए फिरौती वसूल करने लगे थे। जो डाकू के परिवारों को फिरौती दे देता था उस व्यापारी के समुद्री जहाज सुरक्षित चले जाते थे। धीरे-धीरे व्यापारियों ने समुद्री लुटेरों से बचने के लिए यह फिरौती धरती पर ही डकैतों के परिवारों को देना शुरू कर दी। समुद्री डकैतों का यह धंधा धरती पर अनेक प्रकार के गुंडों को पसंद आया। जो व्यापारी इन गुंडों को फिरौती नहीं देते थे उनके गोदामों को आग लगा दी जाती थी। इस तरह से अग्नि बीमा उद्योग शुरू हो गया। छोटे व्यापारियों को कीमतों की मार नहीं पड़े इसलिए उन्हीं डकैतों ने बाजारों में मूल्यों का बीमा भी शुरू कर दिया। अगर पर्याप्त बीमा नहीं इकट्ठा होता है तो माल की भारी बिकवाली कर कर कीमतें गिरा दी जाती है। दुनिया भर का युद्ध उद्योग बीमा कंपनियों को जिंदा रखने के लिए चलता है। किसी एक क्षेत्र में युद्ध आगजनी और अपराधों का सिलसिला दुनिया के अनेक देशों में भय का वातावरण पैदा करता है और लोग अपनी भारी कमाई का हिस्सा डकैतों को बीमा के रूप में देने लगते हैं। आपकी जीवन बीमा पॉलिसी भी आपकी असुरक्षा के भय के कारण ली जाती है। टैक्स की मार भी डकैतों का एक तरीका है, ट्रांसपोर्ट का अनिवार्य बीमा भी सरकारों द्वारा प्रायोजित गुंडागर्दी है। भारत की शासन प्रणाली इस प्रकार की थी कि डकैतों और अपराधियों की संपत्तियां कुर्क करके जनसाधारण के लिए कानून व्यवस्था बनाई रखी जाती थी। पश्चिम की शासन प्रणाली आज इस प्रकार का काम करती है कि अपराधियों को सरकारों द्वारा संरक्षण प्राप्त रहता है और जनसाधारण भारी टैक्स चुकाते रहते हैं। लचर अदालत प्रणाली, प्रशासनिक ढांचा अपराधिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। इसलिए कोई भी सरकार जो अपराधियों द्वारा प्रायोजित है वह इस व्यवस्था को सुधारने नहीं देती। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जनसाधारण में भय और अपराध महिमामंडित करने का काम करता है जिससे अंतिम रूप से इस व्यवस्था के पोषकों को लाभ होता है ।
मूर्ति पूजा
पत्थर की मूर्ति देखकर के जब किसी में कामवासना जाग सकती है तो क्या भगवान का दिव्य स्वरूप पत्थर में उकेरा हुआ देख कर के अंदर से मन मैं दिव्य भावना नहीं जाग सकती?
सनातन धर्म
सनातन धर्म तो बहती विशाल नदी की तरह से है जिसका अनंत धाराओं से जन्म होता है और जब समुद्र में मिलती है तो भी, जैसे सुन्दरवन में होता है, अनंत धाराओं में बंट कर विराट समुद्र में समा जाती है। उद्गम भी विराट आकाश से बरसती फुहार से और मिलन भी विराट सागर से। इस सनातन धर्म की नदी से बाहर कोई घाट नही बनाया जा सकता क्यों कि कोई दूसरी नदी हो ही नही सकती। चेतना की अनंत धाराओं से आरम्भ होने वाली ये नदी चेतना की अनंत धाराओं में बंट कर वापस चेतना में विलीन हो जाती है। मार्ग में जिसको जहाँ सूझ जाता है वह वहाँ घाट बना लेता है। अपने घाट पर विश्राम करने के लिए आगंतुक को निमंत्रण देता है। इन घाटों को आप सम्प्रदाय के नाम से जान सकते हैं। जो इस सनातन बहती नदी का गुणगान सुनाता है वह आपके सफर का सहयोगी है जो अपने घाट का गुणगान करके आपको बान्धना चाहता है वह आपका शिकारी है। बस धार्मिक और अधार्मिक में यही अंतर है। झगड़े तो घाट की सीमाओं के अतिक्रमण के हैं या घाट की सीमाओं को बढ़ाने के लिए है।