निजी शिक्षण संस्थाए ।।ज्ञान का उन्नत मंदिर या दुकाने।।।🌷🌷

 

🌷🌷आज अपने बहुमूल्य विचार दीजिये ।इस पर

🙏शिक्षण संस्थाएं सरकारी हो या निजी ज्ञान से इनका कोई वास्ता नही रहा।
🙏पूरा व्यवस्था तंत्र महज सूचनाओं का वाहक बन गया है।
🙏निरर्थक और निरुपयोगी सूचनाएं।
🙏एक बात सोचिए... सूचना कीमती है या सूचना का विश्लेषण करने की योग्यता?
🙏निश्चित ही सूचना का विश्लेषण करने की योग्यता कीमती है।
🙏अब जानिए कि देश के नागरिकों को सूचना का अधिकार बिल भी पिछले दशक में पास हुआ है। अर्थात आजादी के बाद अब तक देश के नागरिकों को सूचना का अधिकार भी नही था।
🙏तो सूचना के विश्लेषण का अधिकार अर्थात ज्ञान का अधिकार आपको शिक्षण संस्थानों में मिल रहा है ये तो सोचना भी मूर्खता है।
🙏सूचना का अधिकार भी केवल कागजों में मिला है। सूचना के अधिकार की वास्तविक मांग करने वाले 100s कार्यकर्ता देश में अब तक जान खो चुके हैं।
🙏आपको इंटरनेट के नाम पर सूचनाओं का विराट तंत्र दिखाई दे रहा है इसे देख कर भ्रमित न हों।
🙏ये तो वैसे ही है जैसे खारे पानी के समुद्र में आप नाव में सफर कर रहे है। नाव का मालिक पीने के पानी पर कब्जा किये बैठा है।
🙏नाव के मालिक की तरह से दुनिया के चुने हुए लोगों ने पीने योग्य पानी अर्थात् उपयोगी सूचना पर अधिकार कर रखा है। उन सूचनाओं की मांग करने वाले यातो उपेक्षित है या खत्म कर दिए जाते है।
🙏अब विचारिये क्या जनसाधारण को ज्ञान का अधिकार है?
🙏शिक्षण संस्थानों में जो शिक्षा के नाम पर ड्रामा चल रहा है वह इस ड्रामे के वित्त पोषकों एजेंडा पूरा कर रहा है।
🙏आप सोचिये जो वित्त पोषक तंत्र दुनिया के किसी एक कारखाने में बना मोबाइल बाजार के हर रिटेल स्टोर पर 10 दिन में पहुँचा देता है क्या उसकी नीयत ठीक हो तो वह दुनिया की 80% आबादी को सही शिक्षा नही दे सकती?
🙏इस दुनिया में शिक्षा और स्वास्थ्य पर जितना श्रम और कोशल खर्च हो रहा है उससे हजारों गुना कौशल युद्ध उद्योग पर खर्च हो रहा है।
🙏 जिनकी रोटी और शिक्षा की मांग है वे पिघलते लोहे और बारूद के शिकार हो रहे हैं हर क्षण इस धरती पर।
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कर्म प्रधान है अथवा पितरों का आशीर्वाद?

 प्रश्न :  मनुष्य की आवश्यकताएं महत्वाकांक्षा  और उसके सपने कर्म किए बिना पूरे नहीं होते।  पितृलोक एक अंधविश्वास से अधिक कुछ भी नहीं है आप यह व्यर्थ की चर्चा क्यों प्रसारित कर रहे हैं?

उत्तर : जब कहीं गढ़ा खोदा जाता है तो निकली हुई मिट्टी से पहाड़ अपने आप खड़े हो जाते हैं। और पहाड़ों के टूटने से ही गढ़े उभरते हैं। चेतना के भी दो भंवर बने हुए हैं। जन्म और मृत्यु के वोर्टेक्स में जिस तरह यह आयाम अनुभव में आता है उसी तरह मरणोत्तर आयाम भी अनुभव में आता है। आपको जागते हुए तो स्वप्न याद रहते हैं कि आपने नींद में कोई स्वप्न देखा था। लेकिन नींद में कभी यह याद नही रहता कि आपका जागृत अस्तित्व है। जीवन और मृत्यु के मामले में यह नियम उल्टा है... मृत्यु के बाद तो जीवन काल का बोध रहता है कि जीवन कैसे बीता है परंतु जन्म के साथ ही यह बोध खो जाता है कि पारजगत में क्या था। जिस तरह जागरण और स्वप्न अन्तरसम्बन्धित है दिन के घटनाक्रम का स्वप्न पर असर होता है और सपनों की दुनिया भी हमारे जाग्रत निर्णय पर असर डालती है उसी प्रकार जीवन और मृत्यु भी अन्तरसम्बन्धित है। आपकी आवश्यकता, महत्वाकांक्षा और सपने एक ही जन्म में पूरे नही होते। जिस तरह रात को सोते समय अधूरे काम छोड़ कर विश्राम में चले जाते हो उसी प्रकार अधूरी जिंदगी छोड़ कर जीव मृत्यु रूपी विश्राम में चला जाता है। परंतु जिस तरह नींद आपकी यात्रा/अस्तित्व का अंत नही है उसी तरह मृत्यु भी आपके अस्तित्व/यात्रा का अंत नही है। सत्य के साक्षात्कार के लिए आवश्यकता, महत्वाकांक्षा और सपनों का शांत होना आवश्यक है। नींद और मृत्यु में चैतन्य प्रवेश से ही पितृलोक का बोध हो सकता है। इसका अर्थ यह नही कि बोध न होने तक हम पर पितृलोक का कोई असर नही है। अंधविश्वास कोई बुरी बात भी नही है। जब तक आपको लाभ होता है तब तक अंधविश्वास करते रहें। किसान का विश्वास है कि धरती चपटी है इस विश्वास के सहारे वह खेती करता है। यूक्लिड ज्योमेट्री के सहारे हमने इतना यांत्रिक विकास किया है परंतु अब नॉन यूक्लिड ज्योमेट्री या क्वांटम फिजिक्स के सहारे यांत्रिक मजबूरी से मुक्त हो रहे हैं। याद करिये वे दिन जब मोबाइल फोन नही थे तो इसकी मुफ्त में उपलब्ध सुविधाओं के लिए कितनी यांत्रिक रचनाएं खरीदनी पड़ती?

सुरेश 9929515246

Education?

 एक लोचशील और ऐसी शिक्षा प्रणाली की जरूरत है जो व्यक्ति की निहित क्षमताओंं को उभारने में सहयोगी हो। इससे युवक न केवल अपनी क्षमताओं का समाज में योगदान करें बल्कि सहयोग भी कर सके। निजि और टीम के रूप में उसकी उपयोगिता पर विचार करते हुए ही मुल्यांकन प्रणाली का विकास करना होगा। औद्योगिक युग में युवक को पहले से ज्ञात होता था कि वह किस प्रकार का स्किल सीख कर किस इंडस्ट्री में समायोजित हो जाएगा।

स्किल डवलपमेण्ट के नाम पर सरकार जो कर रही है क्या उसमें बदली परिस्थिति के अनुसार नये स्किल सीखने सिखाने के रास्तों पर विचार किया जाएगा?

समाज में तीव्रगति से निरंतर होने वाले बदलावों के लिए जो स्किल चाहिए क्या वे हमारे नीति निर्माताओं के लिए विचारणीय विषय है?

बदलाव ही वह लक्ष्य है जिसके लिए युवा को स्किल देना होगा। अर्थव्यवस्था में, समाज में निरंतर बदलाव हो रहा है। इस निरंतर बदलाव के अनुकूल जो स्किल सेट चाहिए वह आउट ऑफ डेट नही हो सकता।

रचनात्मकता, निरंतर स्वरूप बदलती समस्याओं का समाधान कर सकने की क्षमता का विकास, सहयोग पाने और देने की तत्परता, सामुहिक हितों के प्रति सजगता, अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ, सांस्कृतिक समझ, भावात्मक लचीलापन, सीखते रहने की ललक, उद्यमिता ये कुछ स्किल सेट है जिनके बिना युवक अधूरा ही रहेगा। सरकार क्या इन सब के लिए कुछ कर रही है?

सीखने और समयानुकूल तत्काल बदलने की भावना का विकास व्यापक मीडिया सहयोग के बिना सम्भव नही है।

क्या हमारे पास वह मैन पावर है जो इन जरूरतों को पूरा कर सके? क्या प्रशासन इतना लचीला है कि वह प्रमाणपत्रों की दिखाई योग्यता से बाहर जाकर भी उपयुक्त मानव संसाधन को इस कार्य के लिए सहयोगी बना सके?

पितृ कुल कैसे काम करता है?

 पितृकुल की रचना वे लोग बेहतर समझ सकते हैं जो बैंकों का क्लियरिंग सिस्टम, नेटवर्क मार्केटिंग, स्टॉक मार्केट का सेटलमेंट सिस्टम, एयर ट्रैफिक का ग्लोबल स्ट्रक्चर या रेलवे कंट्रोल सिस्टम जानते हैं। थोड़े से अभ्यास से धरती के एक ऐसे सूक्ष्म आयाम को जाना जा सकता है जिससे अधिकांश मानव जाति अनजान है। बॉलीवुड मूवीज जैसे... डिफेंन्डिंग योर लाइफ, घोस्ट टाउन, फाइव पर्सन आई मेट इन हेवन, इन टाइम जैसी मूवीज बनाना पितृ लोक की समझ बिना संभव नही है। सनातन धर्म की प्रत्येक जाति, सम्प्रदाय अपने बच्चों की कमर, बाजू या गले में कोड़ी, चांदी और तांबे के प्रतीक पहनाते थे। ये सब अकारण नही था। संकेत के लिए आप देखिए कि एयर ट्रैफिक का लगभग 90% असेट हर समय हवा में रहता है अगर दुनिया का एयर ट्रैफिक हड़ताल करने की सोचे तो धरती पर इतना एयरक्राफ्ट्स के लिए बेस नही कि उसे ग्राउंड किया जा सके। आज स्टॉक मार्केट का सेटलमेंट सिस्टम क्रैश कर जाए तो दुनिया भर के कर्म भुगतान धराशायी हो जाए। प्रकृति की सेल्फ इंटिलिजेंस इन व्यवस्था से अनन्त शुद्धि के साथ है।

ब्राह्मण एकता?

 नफरत की बात करने वाले कथित ब्राह्मण राक्षस है, वे वर्ण व्यवस्था के अंग नही है। अन्य जातियों को इनके बहकावे में नही आना चाहिए।

जो इस विचार से सहमत न है, न ही इस दिशा में काम कर रहे वे राक्षस है। उन पर वर्ण व्यवस्था लागू ही नही होती।

ब्राह्मण एकता की बात ना करें

�ब्राह्मण, एकता का विषय नहीं हो सकता। 

�यह तो सहज आकर्षण का विषय होना चाहिए। 

�अगर आप देशकाल सापेक्ष मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकते हैं तो आप के प्रति सहज आकर्षण होगा।

�एकता का अर्थ है सब के गले में एक ढोल बजे। 

�परंतु ब्राह्मण संगठन एक आर्केस्ट्रा के रूप में होगा।

�जातीय ब्राह्मणत्व का दायित्व लेना होगा। 

�समझदार ब्राह्मण अन्य जातियों के शक्तिशाली नेतृत्व से संपर्क स्थापित करें और उनका मार्गदर्शन करें।

�अपनी चुनी हुई जाति के लोगों का जातीय गौरव कैसे बढ़ाएं उस पर उनको रणनीति दे।

�अन्य जातियों के भीतर वसुधैव कुटुंबकम की भावना का संचार करें।

�परंतु यह महज सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे की समझ से ही संभव नहीं होगा।

�जीवन और मृत्यु जैसे चेतनागत विषयों के वैज्ञानिक प्रतिपादन से हर व्यक्ति अपना निजी विकास चाहता है।

�इस इच्छा के कारण से वसुधैव कुटुंबकम की सहज वृति हर जाति के नागरिक विकसित होगी।

�अच्छाई की प्रतिस्पर्धा के अंपायर बने।

�प्रत्येक जाति को अन्य जातियों का समर्थन लेने के लिए अपनी जाति के दायरे से बाहर निकलकर सामाजिक रचना में भाग लेना होगा।

�इस उदारता का अभाव ही उनको शुद्र बनाता है।

�����

 सुरेश कुमार शर्मा

 मनो परामर्शक 

99295 15246

योगियों के लिए भी पितृ कुल आवश्यक

 प्रश्न: भगवान की भक्ति करने वाले या ध्यानी व्यक्ति को पितृलोक से जुड़ने की क्या आवश्यकता है? 

उत्तर: इसका उत्तर पहले भारतीय शास्त्रीय संदर्भ में जान लेते हैं जिनकी इन शास्त्रों पर आस्था है उनको सरलता से समझ आएगा। फिर उनकी भाषा में भी बात कर लेंगे जिनको या तो सनातन धर्म का कोई ज्ञान नही है अथवा कुछ विज्ञान पढ लेने के कारण इन ग्रंथों को छूते हुए शर्म आती है। भक्ति और ध्यान जैसे भारी भरकम शब्दों के साथ जीने वाले अधिकांश लोग जीवन से मुँह मोड़ें हुए हैं। पितृलोक में दो भाव के लोग बोध पूर्वक जुडेंगे... मनोकामना पूर्ति के लिए जनसाधारण और कर्तव्य पूर्ति के किए भक्त अथवा ध्यानी। (एक बात ध्यान रहे कि भक्त, ध्यानी या जनसाधारण इस नेटवर्क से जुड़ा ही है, जिस प्रकार कोई मछली सागर से अछूती नही है उसी प्रकार आप इस रचना को स्वीकार करें या अस्वीकार परंतु आपके अस्तित्व से इस तंत्र का गहरा सरोकार है) सचमुच ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति कर्तव्य भाव से पितृऋण उतारने के काम में जीवन लगा देता है, भक्ति में डूबा व्यक्ति भी सत्य का साक्षात्कार करता है तो साक्षी भाव कहिये या कर्तव्य भाव से पितृऋण चुकाता है। ऐसे लोगों को विभूति कहा जाता है अर्थात वे साधक जो पाँच भूत के प्रपंच का अतिक्रमण कर चुके। परंतु क्या वे सुबह शाम की रोटी आदि की दैहिक आवश्यकता पूरी नही करते? पाँच भूत प्रपंच से उनकी भौतिक देह तो बंधी ही है। भगवान राम ने अवतारी होते हुए भी पिता का पिंडदान किया, सीता ने अपने श्वसुर का तर्पण किया। क्या आवश्यकता थी उनको जिनके स्पर्श मात्र से पाषाण प्रतिमाएँ मुक्त होने के किस्से है। आप तलवार चलाना सीख गए इसका मतलब यह नही कि जीवन में सूई का महत्व खत्म हो गया। भगवान कॄष्ण तो पूर्ण कलावतारी कहलाते हैं पर उनके सारथी होते हुए भी युद्ध में अर्जुन के रथ की ध्वजा पर हनुमान जी क्यों? 

सोशल इंजिनियरिंग के आधार पर आप इसे इस तरह समझें कि ... मान लीजिए कि आपको लगता है कि भारत के राष्ट्रपति से आपकी मित्रता हो जाए तो मेरे जीवन के सारे संकट सरलता से ह्ल हो जाएंगे। आपके लिए वही भगवान है। यह सम्बंध आपका हो जाता है। अब आप अपने गांव में अपनी जमीन का अवैध कब्जा छुडाना चाहते हैं। आपकी इच्छा पर गृह मंत्रालय से आदेश आया और जिला प्रशासन आपके आदेश पर कब्जा छुड़वा सकता है। परंतु कर्मभोग देखिए कि कब्जेदार का रिश्ता आपके फुफा जी से है, आपकी बुआ आकर कहती है कि जमीन का सुख तो ले लोगे पर उस घर में मेरी जिंदगी नर्क हो जाएगी मैं वहाँ नही रह पाउंगी इसलिए मुझे अब यहीं शरण दे दो। सोचिए, राष्ट्रपति से सम्बंध होते हुए भी आपके भावलोक में एक दर्द बना रहेगा। कारण आपको चुनना है कि जमीन हेतु बनेगी या बुआ? पितृलोक इसी तानेबाने का नाम है। आपके आयुष्यकर्म / पितृऋण  आपको कुशलता पूर्वक निपटाने ही हैं।

प्रेत योनि के पितृ और देव योनि के पितृ

 जिनके जीवन में अपने कुल के प्रेतपितृ मंडराए रहते हैं वे दिन रात बेचैनी, बरबादी, निंदा, भय, अपराध, विरोध, घृणा के विचारों से घिरे रहते हैं। यह प्रेतयोनि का आहार है। राक्षस कुल से यह आहार इनको मिलता रहता है। दुनिया में राक्षस समाज संस्थागत तरीके से मनुष्य जीवन में यह आहार पहुंचा रहा है। 

जिनके जीवन में अपने कुल के देवपितृ मंडराए रहते हैं वे प्रेम, रचनात्मकता, मित्रता, करुणा, सद्कर्म, समाधान, सहयोग, एकता आदि विचारों से घिरे रहते हैं। यह देवयोनि का आहार है। दुनिया में इस समय संस्थागत तरीके से इस आहार की पूर्ति का तंत्र नष्ट हो चुका है। देवपितृ का जिनके जीवन में सहयोग है ऐसे लोग भयंकर रोग से भी ग्रस्त हो तो नमक की चुटकी से भी  ठीक हो जाते हैं परंतु जिन पर प्रेतपितृ हावी होते हैं तो साधारण जुकाम भी लाखों रूपये खर्च करा देता है महीनों तक पीड़ा भोगता है और उसे अंत तक सच्चाई का पता नही चलता कि आखिर हुआ क्या था। प्रेतपितृ जिन पर हावी है वे सगे भाई बंधु से भी वैर पाल कर जीवन नर्क बनाए रखते हैं देवपितृ का जिनके जीवन में सहयोग है वे शत्रु के साथ भी मैत्री व्यवहार रखते हैं क्यों कि वे जानते हैं कि मेरे ही पूर्वज आज किसी न किसी कुल में देह धारण किए हुए हैं। भारत में जाति और वर्ण व्यवस्था को ठीक से समझना है तो पितृलोक की रचना को ठीक से समझ कर हमें लोकांतर सहयोग के लिए आगे आना होगा। वरना जीवन कठिन से कठिन होता जाएगा। सामाजिक तानाबाना आपके लिए सहयोगी हो इसके लिए घर के आगे खड़े बिखारी, शत्रु, विधर्मी, विजातीय को भी इसी भाव से देखना होगा कि जैसे यह मेरे ही कुल से निकला देहधारी है जो किसी न किसी कर्ज के निपटारे के लिए आया है। आध्यात्मिक नेटवर्क की रचना इस पूरे विज्ञान के विस्तार के लिए की गई है। आपके जीवन में पितृलोक से सहयोग के हाथ बढ़े और प्रेतयोनि की शक्तियाँ आप पर कम हावी हो तो जीवन सरल हो।

गायत्री उपासना और पितृ कुल

 प्रश्न: आध्यात्मिक दृष्टी से पितृलोक के गुण दोषों में दखल या समस्याओं के समाधान का दावा क्या प्रत्येक गायत्री उपासक कर सकता है? कितने जप करने पर इस तरह की क्षमता जाग जाती है? 

उत्तर: गायत्री उपासना को लोग प्राय: गायत्री जप तक सीमित रख कर देखते हैँ। पर यह पर्याप्त नही है। इसे आधुनिक तकनीक के जमाने में समझना और सरल हो गया है। एक एंड्रोयड फोन जिसमें आवश्यक तकनीकी फीचर हो उन फोन को बोल कर आदेश दिया जा सकता है। पात्र व्यक्ति के अंगुठे के स्पर्श से फोन काम करने लग जाता है। यहां तक कि पात्र व्यक्ति की आंख पहचान कर ही मोबाइल फोन आदेश की पालना करता है। क्या बेसिक फोन के सामने करोड़ बार भी किसी व्यक्ति का नाम लेकर उससे बात कर सकोगे? गायत्री मंत्र भी उपयुक्त यांत्रिक रचना के साथ काम में लिया जाने वाला ध्वनि संकेत है। ऐसा समझिए कि जैसे यह किसी राष्ट्रपति का नम्बर है जो आपको असाधारण काम कर सकने की क्षमता देता है। चेतना के जगत में यह उस देवीशक्ति का नम्बर है जो पितृलोक ही नही देवी क्षमता भी जगा देती है। परंतु, आवश्यक रचना हो तब। 
पितृलोक में दखल देने के लिए प्रकृति की द्वंद्द्वात्मक शक्तियों के परे चेतना की शुद्ध अवस्था का अनुभव चाहिए। इससे प्रकृति की स्त्रैण और पौरुष उर्जा का ज्ञान होगा। धरती के प्राणी जगत में छाया योन व्यवहार और प्रजनन पर्यावरण यहां के पितृलोक का निर्माण करता है। अनेक जन्मों की हमारी शृंखला में फैला कर्मभोग का यह लोक और पितृलोक इसी व्यवहार और पर्यावरण का विस्तृत आयाम है। इसकी सम्यक समझ और अनुभुति बिना यहाँ अपात्र व्यक्ति का रतिभर भी दखल सम्भव नही है। पितृलोक में स्त्री पुरुष सम्बंध एक आवश्यकता है, देवलोक में यह सम्बंध विलास हो जाता है। कुंडलि‍नी विज्ञान की दॄष्टि से आवश्यकता मूलाधार का विषय है और विलास सहस्रार का विषय है। नासमझी के कारण आजकल तंत्र के नाम पर धरती पर भारी उथलपुथल मची है जिससे पितृलोक भी अछूता नही है। कहने का अर्थ है कि मनुष्य जाति अपने हाथों कोढ़ पैदा कर रही है और पितृलोक से उसे खाज मिलनी शुरु हो जाती है। कोढ़ में खाज का यह दु:ख मनुष्य अपने कर्मों से भोग रहा है। ऐसे में गायत्री साधकों की इस समय भारी आवश्यकता है पर गायत्री साधना गायत्री जाप तक सीमित नही है।


वशीकरण

 (कुछ फेसबुक मित्र के फोन है कि क्या यह उपचारित यंत्र तांत्रिक पद्धति से तैयार किया गया है? शत्रुनाश कर देगा?)

आइये आज तंत्र की मारण शक्ति से कुछ पर्दा हटाते हैं।
मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, सम्मोहन, मूठ आदि शब्द इतने बाजारू ढंग से काम में लिए जाते है कि ना समझी में लोग इन चीजों पर ऐसे ही समय, पैसा खर्च कर रहे हैं जैसे काले बालों के लिए तेल पर, गोरे चेहरे के लिए क्रीम पर, ताजगी के लिए रिफाइंड तेल, लम्बाई के लिए टोनिक आदि पर, पढाई के लिए कथित अच्छी शिक्षा पर खर्च करते है पर नतीजे शून्य रहते है। व्यापक विषय है यह अत: आज केवल मारण विषय पर संक्षिप्त बात करते हैं।
आपसी शत्रुता समाज का एक मुख्य विषय है, यह व्यक्ति से व्यक्ति के साथ, व्यक्ति की संगठन के साथ, व्यक्ति की सरकार के साथ, समुह की समुह के साथ, समुह की सरकार के साथ, देश की देश के साथ होती है। इसके अलावा शत्रुता के अनेक रूप है। क्रिकेट का मैच देखते दर्शक टीवी के साथ भी शत्रुता का रिश्ता निभाते है।
तंत्र के मारण प्रयोग पर सवाल उठाते हुए सेक्युलर अपने ढंग से बात रखता है धार्मिक अपने ढंग से बात उठाता है।
कोई व्यक्ति जब मन में किसी के प्रति शत्रुता पालता है तो शत्रुता का विष शत्रु पर काम करे या न करे सबसे पहले तो उस व्यक्ति के शरीर को ही बीमार करने लगता है। फिर यह शत्रुता किसी व्यक्ति के खिलाफ हो, समुह के खिलाफ हो, सरकार के खिलाफ हो या वस्तु के खिलाफ हो परंतु शत्रुता एक विष है जो आपकी देह में है। इसे किसी कांच की बोतल में बंद कर के नही रखा जा सकता। इसकी तुलना घर में रखे तेजाब या बारूद से की जा सकती है। समझदार व्यक्ति तेजाब घर में होते हुए भी इसे टॉयलेट साफ करने के काम लेते हैं माचिस के बारूद से चूल्हा जला लेते हैं। वे न इससे अपना घर फूंकते हैं और न ही चेहरे फूंकते है।
अब प्रश्न है कि शत्रुता का तेजाब शरीर में कैसे काम करे या वास्तव में जो आपके पर्यावरण के विरुद्ध है वह आपके पर्यावरण से दूर कैसे हो जाए।
विधि: पहला चरण... आप अपनी शत्रुता को क्रोध में रुपांतरित करना सीखें। सोच समझ कर किसी एक ही बिंदु को शत्रु बनाएँ। क्रोध की तेजाब को बिखरने ना दें। कम्प्युटर की प्रोग्रामिंग की तरह एक कड़ी से दूसरी कड़ी जोड़ लें। ताकि एक आइकन पर क्लिक करते ही आपके मन के अनुकूल सब कुछ डेस्कटोप पर फैल जाए। पटाखे की लड़ी की तरह शत्रुता के हर बिंदु को इस प्रकार गूंथ लें कि एक जगह धागे को चिंगारी दिखाते ही पूरी लड़ी दहक उठे। इस बिंदु को लिखकर रख लें। अगर कोई चेहरा है तो उसका फोटो मन में बसा लें। एक बात पक्की कर लें कि अब शत्रुता का कोई दूसरा बिंदु नही है मेरे जीवन में जब तक मैं अपनी सारी उर्जा इस व्यक्ति के खिलाफ न झोंक दूँ। (मान लीजिए आपने किसी को कर्ज दिया और वसूली न कर पाए जिसके कारण घर में अनेक ऐसी परिस्थितियां खड़ी हो गई कि आप उनका कोई समाधान नही दे सकते। पत्नि बात बात पर चिडने लगी है, बच्चे गुमसुम रहने लगे है, संयुक्त परिवार है अब वहां आपके लिए कोई सम्मान नही बचा, अलग होना पड़ रहा है ऐसे में आप मारक प्रयोग करना चाहते हैं तो परिवार के सदस्यों से शत्रुता न पालें क्रोध के अपने बारुद पर नियंत्रण रखें। ऐसा न हो कि घर में दिन भर चिंगारी लगते ही आप भभक उठें)
दूसरा चरण... दिन में किसी भी समय एक घंटा के लिए एकांत में चले जाएँ। अपनी क्रोध की शक्ति को जागने दें। चेहरा याद करें, क्रोध का अपना निर्धारित बिंदु याद करें और रोद्र रूप धारण कर लें। भड़काऊ संगीत का सहारा लेना चाहें तो लें। सांस तेजी से चलने दें मुठठी तन जाने दें श्वास की गति तीव्र होने दें, हाथ पैर जैसे मचलना चाहें मचलने दें परंतु क्रोध कम न होने दें| कोशिश तो यह करें कि इस घड़ी को अपनी मरण घड़ी ही बना लें। खुद को बेहोश हो जाने दें। शरीर को कोई चोट न लगे इसलिए आसपास कोई नुकीली चीज न हो। जिसको टारगेट करते हुए मारण का यह प्रयोग आप कर रहे हैं वास्तव में आपकी उससे कोई लेन देन है तो उर्जा उसके मन पर असर डालने लगेगी और आपकी मनोकामना पूरी होगी। परंतु उससे पहले यह उर्जा आपके मन पर असर डालने लगेगी। आपका मन करेगा कि मैं अपनी मन की प्रोग्रामिंग बदल लूँ, शत्रुता की लड़ी का क्रम बदल दूँ या सब को माफ कर दूँ मुझे क्रोध नही करना चाहिए। ऐसे विचार भले ही बदलते रहे पर आप नियमित रूप से एक घंटा क्रोध करने की अपनी कसम न तोड़ें। कुछ दिन आपने जिस संकल्प से मारण प्रयोग शुरू किया उस संकल्प की पूर्ति होने लगेगी। इस प्रयोग से आप और आपका शत्रु हमेशा विन-विन सिचुएशन में होगा। आपका मारण प्रयोग एक प्रकार का क्युरेटिव कार्य है। जब आप किसी बच्चे को सर्जन को दिखाने ले जाते हैं तो सर्जन की चीरफाड़ बच्चे के लिए सजा नही है वह उपचार उसके लिए जरूरी है तो सर्जन चाकू उठाएगा ही। परंतु सर्जन अगर दवा से ही काम चला सकता है तो आपका प्रयोग अलग ढंग से पूरा हो जाएगा। प्रकृति कुछ भी ऐसा नही करती कि जिससे प्रयोग की सफलता के बाद आपको अपराध बोध हो कि मैंने क्रोध और शत्रुता के वश होकर यह क्या कर दिया।

पितृकुल विज्ञान के विस्तार के लिए वॉलंटियर्स

 


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पितृकुल विज्ञान के विस्तार के लिए वॉलंटियर्स की आवश्यकता है🌹
🙏जीवन की समस्याओं की सटीक व्याख्या हो जाए, ठीक से विवरण लिखा जा सके, ऐसे अकाट्य तर्क सामने हों जिनका कोई तोड़ न हो तो सभी समस्याओं का समाधान 100% उपलब्ध है।
🙏पितृकुल की रचना समझकर कोई भी व्यक्ति अपनी सभी समस्याओं का समाधान पा सकता है।
🙏आज के युग में सभी समझदार कहलाने वाले नागरिक खुद को आजाद कहलाने का दावा करते हैं परंतु एक आन्तरिक छटपटाहट के साथ बेबस जिंदगी जी रहे हैं।
🙏आजादी का अर्थ उन्होंने एक गैर जिम्मेदारी ओढ़ ली है और नारा अपना लिया है "मस्त रहो मस्ती में चाहे आग लगे बस्ती में"।
🙏इस कारण बस्ती ने भी जैसे उससे मुंह फेर लिया है और हर आदमी अपनी स्वतंत्रता के नाम पर पागल होने के कगार पर है।
🙏इस भारी विपदा में समझदारी कहती है कि आपस में सहयोग का हाथ बढाएं और जीवन की छटपटाहट को कम करें। अपना जीना सहज करें।
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🙏 थोड़ा सा प्रशिक्षण लेकर पितृकुल का विज्ञान समझा जा सकता है।
🙏 आप किसी और के जीवन में रुचि लेते हैं या नहीं लेते हैं इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता परंतु अगर आप अपने जीवन को भी सुखमय करना चाहते हैं तो आप के कारण आपके आस पास सुख की तरंगे अपने आप फैलने लगेंगे।
🙏 हमें वॉलंटियर्स की आवश्यकता है जो सब के लिए नही अपने लिए ही आनन्द चाहता है, अपनी छटपटाहट कम करना चाहता है।
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सुरेश कुमार शर्मा
99295 15246

🙏🙏🙏🙏आज भी ब्राह्मण छाती ठोक कर सम्मान पा सकता है। क्या आप तैयार है?

 


आइए आज जानते हैं कि ब्राह्मण भारत के समाज में सबसे अधिक सम्मानित वर्ण क्यों था। दरअसल आज की शिक्षा पद्दति समाज को सिखाती है कि आप पैसे के लिए काम कैसे करें? जिससे कि आपका जीवन सुखी हो जाए। पर वाक्य को ठीक से पढिए इस वाक्य में ही गुलामी छुपी हुई है। जब आप किसी (पैसे) के लिए काम करने के लिए निमंत्रण पा रहे हैं तो आपकी स्वतंत्रता का हनन तो इस प्रस्ताव से ही कर लिया गया है। आप को सीधे सीधे गुलामी का निमंत्रण मिल रहा है। जिस दिन भारत में यह सोच समाज पर शासन करने लगी उसी दिन से इस समाज का पतन हो गया। आपकी सोच उलटी हो गई है। आप सोच कर देखिए इसी घड़ी अगर आपको कोई यह सिखाने लगे कि पैसा आपके लिए कैसे काम करे तो क्या आप उस से किसी प्रकार का शत्रुता का बर्ताव कर सकोगे? आज भी समाज में उन लोगों का सम्मान है जो यह सिखाते हैं कि पैसा आपके लिए कैसे काम करेगा। परंतु ऐसे शिक्षक आपकी मैंन स्ट्रीम एजुकेशन में आपको नहीं मिलेंगे। आपकी प्रचलित शिक्षा का उद्देश्य ही यह है कि आपको पहले दिन ही गुलाम बना लिया जाए। धरती की राक्षसी वृतियों ने यूरोप से निकल कर पूरे उस समाज को नष्ट कर डाला जो प्राकृतिक रूप से जीवन यापन कर रहा था और वह जानता था कि अर्थ व्यवस्था समाज के लिए कैसे काम करती है। परंतु सत्ता के प्यासे लोगों ने गुलाम प्रथा का सुख भोगने के लिए उस अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर लिया और यह सिखाया जाने लगा कि जीना है तो आपको पैसे के लिए काम करना होगा। आपको जिंदा रहने का ही लक्ष्य दे दिया गया है और आप इसे बड़ी उपलब्धि मानने लगे हैं। जब कि आनंद से जीने के लिए आपको यह सीखना होगा कि पैसा आपके लिए कैसे काम करेगा? पितृकुल पर लंबे समय से काम करते हुए मै इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि हमे तेजी से एक ब्राह्मण समाज खड़ा करना होगा जो जन्म से नहीं कर्म से ब्राह्मण हो। अर्थात एक ऐसा मनुष्य चाहिए जो समाज को तेजी से सिखाए कि पैसा उनके लिए कैसे काम कर सकता है। इस निमंत्रण में कोई जाति बंधन नहीं है। किसी भी कुल परंपरा में जन्मा धरती का कोई भी मनुष्य ब्राह्मण हो सकता है जो समाज को यह सिखाए कि पैसा उनके लिए कैसे काम करेगा।



जो देवी देवता अपने पुजारी का पेट नहीं भर सकते ..

 

🕉️🕉️सनातन धर्म के मंदिरों की दुर्दशा का और समाज का रवैया.. एक किस्सा --- 🕉️🕉️आज गाँव के मंदिर में मंदिर के ट्रस्टी बंबई से पधारे एक जातक को लेकर आए। साथ में बाजार से आते हुए चार नींबू भी ले आये। जातक को मंदिर की भव्यता, दिव्यता और उसका महिमा मंडन कर के आराम से जातक को बैठाया गया। फिर ट्रस्टियों ने पुजारी जी को आदेश दिया कि नींबू लाएं हैं जरा शिकंजी बना लो। पुजारी ने शिकंजी बनाने से मना कर दिया। ट्रस्टियों ने फोन कर कर एक और ट्रस्टी को बुला लिया ताकि पुजारी के व्यवहार से दूसरे ट्रस्टियों को अवगत कराया जा सके। आकार दूसरे ट्रस्टी ने भी वैसा ही व्यवहार किया। पुजारी ने फिर मना कर दिया। अब जातक के सामने तमाशा न हो इसलिए ट्रस्टी खुद शिकंजी बनाने लगे। पुजारी से प्रेम से सहयोग मांगने की कोशिश की पर उसने फिर मना कर दिया। बल्कि पुजारी ने ट्रस्टियों से ये भी कहा कि बर्तन साफ करके जाना परंतु ट्रस्टी बर्तन कैसे साफ करते जिस पुजारी को अपनी पैरों की धूल मानते हैं वह उनका आदेश ही नहीं मानता। वे बिना बरतन साफ किए मंदिर से जातक के साथ चले गए। जब आपका नोकर आपके लाए अतिथि के सामने ऐसा व्यवहार करे तो आप तो अपमानित ही अनुभव करेंगे न? अब जातक अथवा मंदिरों के दर्शनार्थियों की दृष्टि से इस प्रकरण पर विचार करिए। वह जातक अगर सच में भगवान के घर आया है तो उसे साफ दिखाई दे रहा है कि मंदिर के देवता अपने पुरोहित का मान सम्मान नहीं करा सकते। एक पुरोहित की यह प्रतिष्ठा है कि पैसे और सत्ता के नशे में ट्रस्टी लोग उसे जूते की धूल समझते है तो सोचिए उस मंदिर में स्थापित देव प्रतिमा के प्रति उनके मन में सम्मान होने का भाव सच्चा है? ढोंग है? ये लोग कपटी है। इनका धर्म से कोई वास्ता नहीं है। एसे लोग समाज की भावनाओं का शोषण करने के लिए ईंट गारे का एक भव्य स्थान बना कर उससे और अधिक बड़ा महल बनाने की जुगाड़ कर रहे हैं। सोचने लायक बात है कि मंदिर में साधन नहीं है इसलिए एक पुजारी को श्रद्धा के अनुसार मानदेय देकर आप रखते हैं। आप इस मंदिर की चेतना के विकास के लिए क्या कर रहे है? इस प्रकरण के आधार पर आप देश में स्थापित मंदिरों और उनमें बैठे हुए पुजारियों की दुर्दशा का अनुमान कर सकते है। कोई भी चेतना सम्पन्न आदमी मंदिर में पुजारी नहीं बनाना चाहेगा। वहाँ साधक नहीं ठहर सकते। वहाँ केवल रोटी के लिए लाचार भिखमंगे ब्राह्मणों की जरूरत है। जो ट्रस्टियों की ठोकरों में रह सके। अब आइए बात करते हैं सरकार की इन मंदिरों की आमदनी पर नजर क्यों रहती है? सैंकड़ों / हजारों सालों से स्थापित जिन मंदिरों में करोड़ों की आय है वे एसे ही कपटी पारिवारिक ट्रस्ट के हाथ में है। जिनका अपने सनातन धर्म से कोई वास्ता नहीं। खुद उनकी नजर में साधना का कोई सम्मान नहीं। चेतना के विज्ञान का कोई सम्मान नहीं। तो फिर समाज उनके साथ कैसे होगा? वे भी अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा के लिए दर्शन कर मंदिर से लौट आएंगे। सामाजिक जुड़ाव न होगा तो नए मंदिर पनपेंगे नहीं और पुराने मंदिरों पर सरकार में बैठे पिशाचों की नजर रहेगी। मूर्तियों की चोरियाँ होगी, गैर धर्मी लोग ट्रस्ट में बैठेंगे। लूट और शोषण किसको पसंद नहीं? इस धंधे में धर्मों से ऊपर उठ कर सब साथ साथ है। शर्म आनी चाहिए समाज को जो कपट को अपनी सामाजिक कुशलता मानता है और जन भावनाओ से खिलवाड़ करता है।

आज के कबीर आगे आएं ..

 वास्त्विक सत्य (अब रूपक बदलने होंगे)

कबीर दास एक बार स्नान करने गये वहीं पर कुछ ब्राह्मण अपने पूर्वजों को पानी दे रहे थे,
तब कबीर ने भी स्नान किया और पानी देने लगे,
इस पर सभी ब्राह्मण हँसने लगे और कहने लगे कि
"कबीर तू तो इन सब में विश्वास नहीं करता , हमारा विरोध करता है,"
और आज वही कार्य तुम भी कर रहे हो ?,, जो हम कर रहे हैं ।
कबीर ने कहा," नहीं ,मैं तो अपने बगीचे में पानी दे रहा हूँ , "
कबीर की इस बात पर ब्राह्मण लोग हँसने लगे और कबीर से कहने लगे कि "कबीर जी तुम बौरा गये हो , तुम पानी इस तलाब में दे रहे हो तो बगीचे में कैसे पहुँच जायेगा ?
कबीर ने कहा जब तुम्हारा दिया पानी इस लोक से पितरलोक चला जा सकता है तुम्हारे पूर्वजों के पास ...
...तो मेरा बगीचा तो इसी लोक में है तो वहाँ कैसे नहीं जा सकता है,, सभी ब्राह्मणों का सिर नीचे हो गया ।
देना है पानी,भोजन,कपडा़ तो अपने जीवित माँ बाप को दो... उनके जाने के बाद तुम जो भी देना चाहोगे... पाखंडियों...
वास्त्विक सत्य:-
(अब)
एक अर्थशास्त्री ने गरीब व्यक्ति से पूछा भाई खरीददारी का बिल लेकर क्या करोगे तुम्हे ज्यादा पैसा देना पड़ेगा।
बेचारे मजदूर ने सुना सुनाया उत्तर दे दिया... देश के विकास से मेरा भला होगा, सार्वजनिक सुविधाऐं बढ़ेगी।
अर्थशास्त्री हँसा, बोला डकैतों और देशद्रोहियों के भरोसे जो शासन प्रणाली चल रही है उनको दी गई तुम्हारी अंजुली भर टैक्स से तुम्हारी पीढ़ियों को भी यूं ही एड़िया रगड़ कर मरते रहना है।
भूपति आर्य, Vijay Kumar Sharma and 6 others
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सीता का त्याग

 प्रश्न: धोबी के कहने पर राम ने सीता का त्याग क्यों किया?

पदार्थ विज्ञान में सबके लिए नियम एक तरह से काम करते हैं। चेतना संबंधी प्रश्नों के उत्तर प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग दिए जाते हैं। क्योंकि कोई भी एक उत्तर पूरी मनुष्य जाति को संतुष्ट नहीं कर सकता।
अधिकांश लोग अपने ही वातावरण से संस्कारित हैं। वे सत्य की तलाश में नहीं है बल्कि अपनी ही धारणाओं के संबंध में अकाट्य तर्क तलाश कर रहे हैं।
इस प्रश्न के उत्तर से ना राम का भला होना ना सीता का भला होने वाला है। इस प्रश्न से यहां उत्तर देने वालों और प्रतिक्रिया करने वालों के संस्कार दिखाई देने लगेंगे। इस प्रश्न का उत्तर दुनिया में लाखों बार लिखा गया होगा बोला गया होगा। हर एक ने उस उत्तर से अपनी मान्यताओं की पुष्टि की है।
एक उदाहरण से इस बात को समझिए शादी होकर एक भाभी जब घर जाती है तो घर में बैठी दो ननंद अगर तय कर लेती है कि हमें भाभी की इज्जत नहीं करनी है तो उनका पहला तर्क यह हो सकता है
अब तो तुम्हारा ही घर में राज है जितना जल्दी होगा तुम हमें शादी करके यहां से विदा करना चाहोगी
दूसरा तर्क यह होगा तुम हमारी शादी क्यों करना चाहोगी तुम्हें तो बैठे-बैठे दो नौकरानियां मिल गई है।
ऐसे पिता दुर्लभ ही होते हैं जो अपने बच्चों को जीवन की शिक्षा देने के लिए अपने ऐश्वर्य से दूर कर देते हैं और उनको वास्तविक धरातल पर संघर्ष करना सिखाना चाहते हैं।
राम जैसा चैतन्य पुरुष जो निर्णय लेकर जन्म लेने की क्षमता रखता है सीता जैसी उच्च चेतना संपन्न स्त्री जो अपहरण से पहले ही अग्नि प्रवेश कर जाती है उसके संबंध में ऐसे प्रश्न उठाना दुराग्रह से ज्यादा और कुछ नहीं है। भारत में इन दिनों दलितों का नेतृत्व छद्म लोगों के हाथ में है धन सत्ता के बल पर सनातन धर्म के ऐसे मुद्दे उभारे जा रहे हैं जिससे उनके निश्चित मंसूबे पूरे हो सके।

बीमा

 आइए आपको बीमा उद्योग के जन्म की कहानी बताता हूं। जो बाजार में ऑप्शन ट्रेडिंग के रूप में आज आपके सामने है। बीमा उद्योग का समुद्री जहाजों के द्वारा किए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय व्यापार से बहुत गहरा संबंध है। व्यापारी जब माल लादकर एक देश से दूसरे देश में लेकर जाते थे तो रास्ते में समुद्री लुटेरे उनको लूट लेते थे। सुरक्षा और आक्रमण के नाम पर जान और माल की भारी क्षति होती थी। समुद्री डाकुओं के परिवार जन व्यापारी के जहाजों को सुरक्षित जाने देने के लिए फिरौती वसूल करने लगे थे। जो डाकू के परिवारों को फिरौती दे देता था उस व्यापारी के समुद्री जहाज सुरक्षित चले जाते थे। धीरे-धीरे व्यापारियों ने समुद्री लुटेरों से बचने के लिए यह फिरौती धरती पर ही डकैतों के परिवारों को देना शुरू कर दी। समुद्री डकैतों का यह धंधा धरती पर अनेक प्रकार के गुंडों को पसंद आया। जो व्यापारी इन गुंडों को फिरौती नहीं देते थे उनके गोदामों को आग लगा दी जाती थी। इस तरह से अग्नि बीमा उद्योग शुरू हो गया। छोटे व्यापारियों को कीमतों की मार नहीं पड़े इसलिए उन्हीं डकैतों ने बाजारों में मूल्यों का बीमा भी शुरू कर दिया। अगर पर्याप्त बीमा नहीं इकट्ठा होता है तो माल की भारी बिकवाली कर कर कीमतें गिरा दी जाती है। दुनिया भर का युद्ध उद्योग बीमा कंपनियों को जिंदा रखने के लिए चलता है। किसी एक क्षेत्र में युद्ध आगजनी और अपराधों का सिलसिला दुनिया के अनेक देशों में भय का वातावरण पैदा करता है और लोग अपनी भारी कमाई का हिस्सा डकैतों को बीमा के रूप में देने लगते हैं। आपकी जीवन बीमा पॉलिसी भी आपकी असुरक्षा के भय के कारण ली जाती है। टैक्स की मार भी डकैतों का एक तरीका है, ट्रांसपोर्ट का अनिवार्य बीमा भी सरकारों द्वारा प्रायोजित गुंडागर्दी है। भारत की शासन प्रणाली इस प्रकार की थी कि डकैतों और अपराधियों की संपत्तियां कुर्क करके जनसाधारण के लिए कानून व्यवस्था बनाई रखी जाती थी। पश्चिम की शासन प्रणाली आज इस प्रकार का काम करती है कि अपराधियों को सरकारों द्वारा संरक्षण प्राप्त रहता है और जनसाधारण भारी टैक्स चुकाते रहते हैं। लचर अदालत प्रणाली, प्रशासनिक ढांचा अपराधिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। इसलिए कोई भी सरकार जो अपराधियों द्वारा प्रायोजित है वह इस व्यवस्था को सुधारने नहीं देती। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जनसाधारण में भय और अपराध महिमामंडित करने का काम करता है जिससे अंतिम रूप से इस व्यवस्था के पोषकों को लाभ होता है ।

भूपति आर्य, Amit Raghav and 5 others

मूर्ति पूजा

 पत्थर की मूर्ति देखकर के जब किसी में कामवासना जाग सकती है तो क्या भगवान का दिव्य स्वरूप पत्थर में उकेरा हुआ देख कर के अंदर से मन मैं दिव्य भावना नहीं जाग सकती?

जो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं उनके लिए यह सशक्त तर्क है। धर्म ग्रंथ किसी भी समुदाय का हो वस्तुतः एक किताब ही तो है। जिस पर प्रिंटिंग प्रेस से स्याही में कुछ छपा हुआ है। भौतिक रूप से उसका अस्तित्व कागज और स्याही के अलावा और कुछ नहीं है।
और इस किताब को कोई अन्य धर्मावलंबी अपमानित करें तो दंगा फसाद हो जाते हैं। लोग मरने मारने पर उतर जाते हैं। तो फिर लोग मूर्तियों का विरोध/अपमान क्यों करते हैं?
जिस प्रकार धर्म ग्रंथ के अंदर कहे गए शब्दों का भावार्थ व्यक्ति को परमात्मा की तरफ ले जाने की तरफ इंगित करता है वैसे ही मूर्ति की स्थापना और पूजा का उद्देश्य वैसा ही है

सनातन धर्म

 सनातन धर्म तो बहती विशाल नदी की तरह से है जिसका अनंत धाराओं से जन्म होता है और जब समुद्र में मिलती है तो भी, जैसे सुन्दरवन में होता है, अनंत धाराओं में बंट कर विराट समुद्र में समा जाती है। उद्गम भी विराट आकाश से बरसती फुहार से और मिलन भी विराट सागर से। इस सनातन धर्म की नदी से बाहर कोई घाट नही बनाया जा सकता क्यों कि कोई दूसरी नदी हो ही नही सकती। चेतना की अनंत धाराओं से आरम्भ होने वाली ये नदी चेतना की अनंत धाराओं में बंट कर वापस चेतना में विलीन हो जाती है। मार्ग में जिसको जहाँ सूझ जाता है वह वहाँ घाट बना लेता है। अपने घाट पर विश्राम करने के लिए आगंतुक को निमंत्रण देता है। इन घाटों को आप सम्प्रदाय के नाम से जान सकते हैं। जो इस सनातन बहती नदी का गुणगान सुनाता है वह आपके सफर का सहयोगी है जो अपने घाट का गुणगान करके आपको बान्धना चाहता है वह आपका शिकारी है। बस धार्मिक और अधार्मिक में यही अंतर है। झगड़े तो घाट की सीमाओं के अतिक्रमण के हैं या घाट की सीमाओं को बढ़ाने के लिए है।