सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
(Authorized & Affiliated with A unit under Dept. of Sc. & Tech., Govt. of India)
Guidance and Counselling... Role of Numerology in life.
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Becoming A Reader... 1
Becoming A Reader... 1
आप यकीन करें या ना करें जन्म लेते ही आपका बच्चा एक अच्छा पाठक बन जाता है। जब वह पहली ध्वनि सुन रहा है तो ये उसके लिए एक पाठन है, जब भी आप बोलते हो, गाते हो या उसकी किसी हरकत पर आप प्रतिक्रिया करते हो वह उसको पढ़ना चाहता है और पढ़ता है। मतलब ये है कि जन्म लेते ही बच्चा अपनी पठन क्षमता को और मजबूत करने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। और आपके मार्गदर्शन में वह अपनी इस क्षमता को निरंतर बढ़ाता रहता है। बच्चे का भाषा के साथ यह सम्बन्ध बनाने का आपका प्रयास जितना अधिक प्रभावी होता है बच्चा उतना ही अधिक वातावरण के प्रति अनुकूलन बना लेता है। उसका पिछड़ जाना उसकी कमी नही हमारी लापरवाही है। एक सीमा के बाद हम उसके साथ सम्वाद करना बन्द कर देते हैं या उतने प्यास से प्रतिक्रिया नही करते जितना उसके साथ उसके शिशुकाल में करते हैं। भाषा के सीखने के उसके प्रयास को समझने के लिए हमें यह जान लेना चाहिए कि भाषा के चार स्तम्भ है... सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। चारों स्तम्भ एक दूसरे के सहारे खड़े हैं। सुनने के बिना बोलना नही हो सकता। यही कारण है कि बहरा व्यक्ति गूंगा भी होता है। सुनने के बिना लिखना भी नही हुआ था और लिखने के बिना पढ़ना सम्भव नही है। अब समझने की बात यह है कि माता पिता भाषा के यह चारों माध्यम अपने बच्चे को कुशलता से कैसे हस्तांतरित करे। बच्चे की इन चारों कुशलता के विकास के लिए विद्यालय से ज्यादा माता पिता की जिम्मेदारी है। उसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ वह स्वयं सम्भाल सके उसके लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना परिवार के लिए आवश्यक है। आपके बच्चे की सामाजिक में भी भूमिका बढ़े उसके लिए विद्यालय उपयोगिता है। अत: परिवार का एक निरंतर दायित्व है कि व्ह बच्चे को सुने और उसे बात करना सिखाए, उसके साथ पाठन से जुड़े, उसे पुस्तक से परिचय कराए, जल्दी से जल्दी उसे लिखना सिखाए, स्पष्ट पाठन उसकी कुशलता हो सके इस प्रयास में कोई कसर नही छोड़नी चाहिए। आपकी रुचि के कारण ही वह पुस्तक से प्रेम करना सीख सकता है। आप स्वयं विचार करें कि आपकी आय का कितना प्रतिशत हिस्सा अच्छी पुस्तकों पर खर्च होता है? आपके लिए यह आवश्यक नही है कि आप उसके साथ निरंतर पढ़े। पर जब उसने पढ़ना सीख लिया है तो उसके नये पढ़े गये पर आप उससे निरंतर चर्चा अवश्य करें जिससे आपको भी कुछ नया सीखने को मिलेगा और बच्चे को में भी पढ़ने के प्रति सम्मान जागेगा। क्यों कि आप उसकी नई जानकारियों के प्रति प्रेम करते हैं। वह आपका प्रेम पाने के लिए नया सीखेगा। प्राय: सात वर्ष की आयु तक बच्चे पढ़ना सीख लेते हैं। माता पिता की सक्रीयता और बच्चे की निजी क्षमता की सम्भावना के कारण यह समय कभी कभी असाधारण रूप से कम या अधिक हो सकता है। पढ़ने की क्षमता आने के बाद कुछ बच्चे तो निरंतर नया पढ़ने की तलाश करते हैं और कुछ अपनी पुरानी पुस्तकों को बार बार दोहरान पसन्द करते हैं। जो बच्चे पुरानी पुस्तकों का दोहरान पसन्द करते हैं उनकी स्मरण शक्ति का विकास करने में परिवार मदद कर सकत है और जो नया पढ़ना चाहते हैं उनकी विचार शक्ति और तार्किक शक्ति का विकास होने लगेगा। दोनों ही स्थितियाँ आरम्भिक अवस्था में बच्चे के लिए उपयोगी है। बच्चे को छोटी आयु में ही अगर सही मददगार मिल जाए तो बाद में आने वाली पढ़ने और समझने की कठिनाई दूर हो जाती है। बच्चे को एक सफल पाठक पाठक बनाने का सफर बहुत ही रोचक होता है माता पिता के लिए भी और स्वयं बच्चे के लिए भी इस रोमांच से किसी को भी चूकना नही चाहिए। आपके बच्चे के भविष्य के लिए यह एक शानदार तोहफा भी है।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
आप यकीन करें या ना करें जन्म लेते ही आपका बच्चा एक अच्छा पाठक बन जाता है। जब वह पहली ध्वनि सुन रहा है तो ये उसके लिए एक पाठन है, जब भी आप बोलते हो, गाते हो या उसकी किसी हरकत पर आप प्रतिक्रिया करते हो वह उसको पढ़ना चाहता है और पढ़ता है। मतलब ये है कि जन्म लेते ही बच्चा अपनी पठन क्षमता को और मजबूत करने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। और आपके मार्गदर्शन में वह अपनी इस क्षमता को निरंतर बढ़ाता रहता है। बच्चे का भाषा के साथ यह सम्बन्ध बनाने का आपका प्रयास जितना अधिक प्रभावी होता है बच्चा उतना ही अधिक वातावरण के प्रति अनुकूलन बना लेता है। उसका पिछड़ जाना उसकी कमी नही हमारी लापरवाही है। एक सीमा के बाद हम उसके साथ सम्वाद करना बन्द कर देते हैं या उतने प्यास से प्रतिक्रिया नही करते जितना उसके साथ उसके शिशुकाल में करते हैं। भाषा के सीखने के उसके प्रयास को समझने के लिए हमें यह जान लेना चाहिए कि भाषा के चार स्तम्भ है... सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। चारों स्तम्भ एक दूसरे के सहारे खड़े हैं। सुनने के बिना बोलना नही हो सकता। यही कारण है कि बहरा व्यक्ति गूंगा भी होता है। सुनने के बिना लिखना भी नही हुआ था और लिखने के बिना पढ़ना सम्भव नही है। अब समझने की बात यह है कि माता पिता भाषा के यह चारों माध्यम अपने बच्चे को कुशलता से कैसे हस्तांतरित करे। बच्चे की इन चारों कुशलता के विकास के लिए विद्यालय से ज्यादा माता पिता की जिम्मेदारी है। उसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ वह स्वयं सम्भाल सके उसके लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना परिवार के लिए आवश्यक है। आपके बच्चे की सामाजिक में भी भूमिका बढ़े उसके लिए विद्यालय उपयोगिता है। अत: परिवार का एक निरंतर दायित्व है कि व्ह बच्चे को सुने और उसे बात करना सिखाए, उसके साथ पाठन से जुड़े, उसे पुस्तक से परिचय कराए, जल्दी से जल्दी उसे लिखना सिखाए, स्पष्ट पाठन उसकी कुशलता हो सके इस प्रयास में कोई कसर नही छोड़नी चाहिए। आपकी रुचि के कारण ही वह पुस्तक से प्रेम करना सीख सकता है। आप स्वयं विचार करें कि आपकी आय का कितना प्रतिशत हिस्सा अच्छी पुस्तकों पर खर्च होता है? आपके लिए यह आवश्यक नही है कि आप उसके साथ निरंतर पढ़े। पर जब उसने पढ़ना सीख लिया है तो उसके नये पढ़े गये पर आप उससे निरंतर चर्चा अवश्य करें जिससे आपको भी कुछ नया सीखने को मिलेगा और बच्चे को में भी पढ़ने के प्रति सम्मान जागेगा। क्यों कि आप उसकी नई जानकारियों के प्रति प्रेम करते हैं। वह आपका प्रेम पाने के लिए नया सीखेगा। प्राय: सात वर्ष की आयु तक बच्चे पढ़ना सीख लेते हैं। माता पिता की सक्रीयता और बच्चे की निजी क्षमता की सम्भावना के कारण यह समय कभी कभी असाधारण रूप से कम या अधिक हो सकता है। पढ़ने की क्षमता आने के बाद कुछ बच्चे तो निरंतर नया पढ़ने की तलाश करते हैं और कुछ अपनी पुरानी पुस्तकों को बार बार दोहरान पसन्द करते हैं। जो बच्चे पुरानी पुस्तकों का दोहरान पसन्द करते हैं उनकी स्मरण शक्ति का विकास करने में परिवार मदद कर सकत है और जो नया पढ़ना चाहते हैं उनकी विचार शक्ति और तार्किक शक्ति का विकास होने लगेगा। दोनों ही स्थितियाँ आरम्भिक अवस्था में बच्चे के लिए उपयोगी है। बच्चे को छोटी आयु में ही अगर सही मददगार मिल जाए तो बाद में आने वाली पढ़ने और समझने की कठिनाई दूर हो जाती है। बच्चे को एक सफल पाठक पाठक बनाने का सफर बहुत ही रोचक होता है माता पिता के लिए भी और स्वयं बच्चे के लिए भी इस रोमांच से किसी को भी चूकना नही चाहिए। आपके बच्चे के भविष्य के लिए यह एक शानदार तोहफा भी है।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Becoming A Reader...
Becoming A Reader...
बरसों की शोध प्रमाणित करती है कि सीखने में बच्चे के परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका है। जब परिवार बच्चे के साथ साथ अपने हित की जानकारी साथ साथ पढ़ता है तो बच्चे को अपना होमवर्क पूरा करने की प्रेरणा मिलती है, अगर परिवार बच्चे के शिक्षकों से भी बात करे, स्कूल के निमंत्रण पर उसके साथ स्कूल की गतिविधियों में भाग ले तो बच्चे को इससे असाधारण लाभ मिलता है। बच्चे के स्वास्थ्य और खुशी में परिवार अपनी भूमिका बखूबी निभाता है पर अगर बच्चे को परिवार द्वारा पढ़ने की आदत डालने में मदद मिल जाए तो जीवन में वह अपना मार्ग स्वयं चुन लेने और आगे बढ़ने में समर्थ हो जाएगा। देख कर सीखना बच्चे की आदत होती है। अच्छा हो कि परिवार में उसके सामने प्रतिदिन कोई ना कोई पुस्तक पढ़ने की आदत बनाए रखे। यह बच्चे की स्कूल के परिणाम में ही सहयोगी नही है बल्कि पढ़ने की आदत बच्चे को जीवन भर सफल और आनन्द से जीने के रास्ते ढ़ूँढने में मदद करेगी। बच्चे के पढ़ने की आदत बन गई तो समझो कि उनके हाथ दुनिया की वह चाबी हाथ लग गई है जिससे वह ज्ञान का कोई भी दरवाजा खोलने में समर्थ हो जाएगा। इस चाबी के बिना आज अधिकाँश बच्चे पिछड़ रहे हैं। हमारे देश में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के विकास के कुछ मानक निर्धारित किये जाएं और उन मानकों के आधार पर बच्चों का मापन, परीक्षण, सुधार आदि हर स्तर पर किये जा सकने का मार्ग खुलना चाहिए। आज तो केवल विद्यालय, बोर्ड या विश्वविद्यालय के प्रमाण पत्र ही मानक बन कर रह गये हैं जो किसी भी दृष्टि से देश के मानव संसाधन के सही आकलन का आधार नही हो सकते। इसके लिए सबसे बड़ी जरूरत है कि शिक्षकों की एक ऐसी नस्ल तैयार हो जो बच्चों में पढ़ने के प्रति रुचि पैदा करे। इस कुशलता का विकास विद्यालयों में बचपन में ही किया जाना चाहिए। अलग से ऐसे रिसोर्स पर्सन तैयार किये जाने चाहिए जो शिक्षकों को ये सिखाए कि बच्चे में पढ़ने की क्षमता का विकास कैसे किया जाना चाहिए। परिवार में एक आदत बनानी चाहिए कि बच्चे के स्कूल जाना आरम्भ करने से पहले ही वह उसके बोलने का सम्मान करे। बच्चे को अपनी बात विस्तार से बताने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। परिवार के बड़ों को चाहिए कि वह बच्चे के बोलने को ध्यान से सुने, उसके कहने के प्रयास का सम्मान करें। मह्त्वपूर्ण यह नही है कि वह अपनी बात कितने सही ढ़ंग से कह रहा है, महत्वपूर्ण ये है कि वह अपनी बात कितनी बेहतर ढ़ंग से कहने का प्रयास कर रहा है। परिवार को धैर्य पूर्वक उसे सुन कर तर्कपूर्ण ढ़ंग से बात कहना सीखने में मदद करनी चाहिए।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
बरसों की शोध प्रमाणित करती है कि सीखने में बच्चे के परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका है। जब परिवार बच्चे के साथ साथ अपने हित की जानकारी साथ साथ पढ़ता है तो बच्चे को अपना होमवर्क पूरा करने की प्रेरणा मिलती है, अगर परिवार बच्चे के शिक्षकों से भी बात करे, स्कूल के निमंत्रण पर उसके साथ स्कूल की गतिविधियों में भाग ले तो बच्चे को इससे असाधारण लाभ मिलता है। बच्चे के स्वास्थ्य और खुशी में परिवार अपनी भूमिका बखूबी निभाता है पर अगर बच्चे को परिवार द्वारा पढ़ने की आदत डालने में मदद मिल जाए तो जीवन में वह अपना मार्ग स्वयं चुन लेने और आगे बढ़ने में समर्थ हो जाएगा। देख कर सीखना बच्चे की आदत होती है। अच्छा हो कि परिवार में उसके सामने प्रतिदिन कोई ना कोई पुस्तक पढ़ने की आदत बनाए रखे। यह बच्चे की स्कूल के परिणाम में ही सहयोगी नही है बल्कि पढ़ने की आदत बच्चे को जीवन भर सफल और आनन्द से जीने के रास्ते ढ़ूँढने में मदद करेगी। बच्चे के पढ़ने की आदत बन गई तो समझो कि उनके हाथ दुनिया की वह चाबी हाथ लग गई है जिससे वह ज्ञान का कोई भी दरवाजा खोलने में समर्थ हो जाएगा। इस चाबी के बिना आज अधिकाँश बच्चे पिछड़ रहे हैं। हमारे देश में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के विकास के कुछ मानक निर्धारित किये जाएं और उन मानकों के आधार पर बच्चों का मापन, परीक्षण, सुधार आदि हर स्तर पर किये जा सकने का मार्ग खुलना चाहिए। आज तो केवल विद्यालय, बोर्ड या विश्वविद्यालय के प्रमाण पत्र ही मानक बन कर रह गये हैं जो किसी भी दृष्टि से देश के मानव संसाधन के सही आकलन का आधार नही हो सकते। इसके लिए सबसे बड़ी जरूरत है कि शिक्षकों की एक ऐसी नस्ल तैयार हो जो बच्चों में पढ़ने के प्रति रुचि पैदा करे। इस कुशलता का विकास विद्यालयों में बचपन में ही किया जाना चाहिए। अलग से ऐसे रिसोर्स पर्सन तैयार किये जाने चाहिए जो शिक्षकों को ये सिखाए कि बच्चे में पढ़ने की क्षमता का विकास कैसे किया जाना चाहिए। परिवार में एक आदत बनानी चाहिए कि बच्चे के स्कूल जाना आरम्भ करने से पहले ही वह उसके बोलने का सम्मान करे। बच्चे को अपनी बात विस्तार से बताने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। परिवार के बड़ों को चाहिए कि वह बच्चे के बोलने को ध्यान से सुने, उसके कहने के प्रयास का सम्मान करें। मह्त्वपूर्ण यह नही है कि वह अपनी बात कितने सही ढ़ंग से कह रहा है, महत्वपूर्ण ये है कि वह अपनी बात कितनी बेहतर ढ़ंग से कहने का प्रयास कर रहा है। परिवार को धैर्य पूर्वक उसे सुन कर तर्कपूर्ण ढ़ंग से बात कहना सीखने में मदद करनी चाहिए।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
गाइडेंस और कॉंसलिंग से आप बदलते सामाजिक पर्यावरण में तेजी से समायोजित हो सकते हो...
गाइडेंस और कॉंसलिंग से आप बदलते सामाजिक पर्यावरण में तेजी से समायोजित हो सकते हो...
गाइडेंस और कॉंसलिंग से सहायता वे लोग बेहतर विकास कर सकते हैं जो आत्म मुल्यांकन करना जानते हैं। स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों में तो नष्ट की जा रही है। परीक्षा प्रणाली के चरण इस प्रकार होने चाहिए ... स्व मुल्यांकन ( सीखने के लिए दिये गये लक्ष्य को हासिल करने में कितनी सफलता मिली है इसकी पहचान करना बच्चे को आनी चाहिए), पारस्परिक मुल्यांकन ( अपने मित्र से चर्चा करके वह अपने द्वारा प्राप्त किये गये लक्ष्य का आकलन कराना सीखे), शिक्षक/अभिभावक मुल्यांकन तीसरा चरण होना चाहिए ( अपने द्वारा दिये गए काम का परीक्षण करने से पहले बच्चे को प्रेरित करे कि वह पहले के दो चरण पूरे कर के आप से सम्पर्क करे), बोर्ड/विश्वविद्यालय या प्राचार्य मुल्यांकन तो पंच फैसले की तरह से होना चाहिए। जो लोग स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों से बचा कर ले आते हैं वे ही आगे बढ़ने के लिए किसी की सहायता का अनुभव करते हैं। मनोपरामर्श के बारे में एक धारणा समाज में गलत बैठी हुई है कि यह तो केवल पागलों के लिए आवश्यक चिकित्सा है। दरअसल इसे कार की मैकेनिक वर्कशॉप और कार ड्राइविंग के स्कूल के रूप में देख कर समझा जा सकता है। जब आप परामर्श चाहते हैं तो इसका अर्थ है कि कार चलाना सीखने की तरह ही आप अपनी क्षमताओं, रुचियों, आवश्यकताओं में तालमेल बैठाने के लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह ले रहे हैं। मनोचिकित्सा का अर्थ है जैसे कि कार खराब होने पर आप उसे वर्कशॉप में ले कर जा रहे हैं। अब एक बात स्पष्ट समझ आ जाती है कि आप स्वयं अगर किसी मनोपरामर्शक के पास जा रहे हैं या किसी अच्छे मनोपरामर्शक के लिए मित्रों से सलाह कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि आपकी गाड़ी सही है और उसे ठीक से चलाना सीखने के लिए आपको प्रशिक्षक की आवश्यकता है जो दुर्भाग्य से आप को शिक्षण काल में नही मिल रहा है जो आप का अधिकार था। अब इस प्रक्रिया को चरण बद्ध रूप से इस प्रकार समझ सकते हैं... ■आप अनुभव करते हैं कि आपको सहायता की आवश्यकता है। ■आप किसी अच्छे परामर्शक से स्वयं सम्पर्क करते हैं या किसी मित्र से सलाह माँगते हैं कि किसकी सहायता लेनी चाहिए। ■आप अनुमान करते हैं कि परामर्शक के साथ आपके सम्बंध किस प्रकार के बनेंगे। ■जब आप परामर्शक से मिलते हैं तो अपनी जरूरतें शेयर करते हैं, भावुक भी हो जाते हैं। ■इस सत्र में आप अपनी आवश्यकता को भाषा में व्यक्त करना सीख लेते हैं कि आप स्वयं से क्या चाहते हैं। अनावश्यक तनाव, चिंता, भय दूर हो जाते हैं। ■हो सकता है कि आपके अतीत से कोई समस्या के कारण निकल कर आए और उसके लिए कुछ अभ्यास करने पड़ें। ■अपनी जरूरत और समस्याओं के प्रबन्धन के विषय में आपके मन में एक स्पष्ट तस्वीर बन जाती है जिस पर आप आश्वस्त हो कर काम कर सकें। ■बद्लाव के प्रति आप चिंतित हो सकते हैं उसका प्रबन्धन करने के लिए आपको परामर्शक आश्वस्त करता है कि जीने की नई शैली आपको किस प्रकार वर्तमान अनुचित वातावरण से मुक्त कर सकती है। ■अब आप परामर्शक की सलाह पर कुछ अभ्यास आरम्भ करते हैं और बदलाव का अनुभव होने लगता हैं। ■अंतिम चरण में आप अपनी समस्याओं को स्वयं हल करने लगते हैं और परामर्शक की आवश्यकता का अनुभव नही करते। ये वैसे ही है जैसे कि बच्चे को चलना सिखाने के लिए कुछ समय के लिए सम्भाल कर रखना पड़ता है फिर वह सारी उम्र अपना चलना सीखा हुआ भूल नही सकता।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
गाइडेंस और कॉंसलिंग से सहायता वे लोग बेहतर विकास कर सकते हैं जो आत्म मुल्यांकन करना जानते हैं। स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों में तो नष्ट की जा रही है। परीक्षा प्रणाली के चरण इस प्रकार होने चाहिए ... स्व मुल्यांकन ( सीखने के लिए दिये गये लक्ष्य को हासिल करने में कितनी सफलता मिली है इसकी पहचान करना बच्चे को आनी चाहिए), पारस्परिक मुल्यांकन ( अपने मित्र से चर्चा करके वह अपने द्वारा प्राप्त किये गये लक्ष्य का आकलन कराना सीखे), शिक्षक/अभिभावक मुल्यांकन तीसरा चरण होना चाहिए ( अपने द्वारा दिये गए काम का परीक्षण करने से पहले बच्चे को प्रेरित करे कि वह पहले के दो चरण पूरे कर के आप से सम्पर्क करे), बोर्ड/विश्वविद्यालय या प्राचार्य मुल्यांकन तो पंच फैसले की तरह से होना चाहिए। जो लोग स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों से बचा कर ले आते हैं वे ही आगे बढ़ने के लिए किसी की सहायता का अनुभव करते हैं। मनोपरामर्श के बारे में एक धारणा समाज में गलत बैठी हुई है कि यह तो केवल पागलों के लिए आवश्यक चिकित्सा है। दरअसल इसे कार की मैकेनिक वर्कशॉप और कार ड्राइविंग के स्कूल के रूप में देख कर समझा जा सकता है। जब आप परामर्श चाहते हैं तो इसका अर्थ है कि कार चलाना सीखने की तरह ही आप अपनी क्षमताओं, रुचियों, आवश्यकताओं में तालमेल बैठाने के लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह ले रहे हैं। मनोचिकित्सा का अर्थ है जैसे कि कार खराब होने पर आप उसे वर्कशॉप में ले कर जा रहे हैं। अब एक बात स्पष्ट समझ आ जाती है कि आप स्वयं अगर किसी मनोपरामर्शक के पास जा रहे हैं या किसी अच्छे मनोपरामर्शक के लिए मित्रों से सलाह कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि आपकी गाड़ी सही है और उसे ठीक से चलाना सीखने के लिए आपको प्रशिक्षक की आवश्यकता है जो दुर्भाग्य से आप को शिक्षण काल में नही मिल रहा है जो आप का अधिकार था। अब इस प्रक्रिया को चरण बद्ध रूप से इस प्रकार समझ सकते हैं... ■आप अनुभव करते हैं कि आपको सहायता की आवश्यकता है। ■आप किसी अच्छे परामर्शक से स्वयं सम्पर्क करते हैं या किसी मित्र से सलाह माँगते हैं कि किसकी सहायता लेनी चाहिए। ■आप अनुमान करते हैं कि परामर्शक के साथ आपके सम्बंध किस प्रकार के बनेंगे। ■जब आप परामर्शक से मिलते हैं तो अपनी जरूरतें शेयर करते हैं, भावुक भी हो जाते हैं। ■इस सत्र में आप अपनी आवश्यकता को भाषा में व्यक्त करना सीख लेते हैं कि आप स्वयं से क्या चाहते हैं। अनावश्यक तनाव, चिंता, भय दूर हो जाते हैं। ■हो सकता है कि आपके अतीत से कोई समस्या के कारण निकल कर आए और उसके लिए कुछ अभ्यास करने पड़ें। ■अपनी जरूरत और समस्याओं के प्रबन्धन के विषय में आपके मन में एक स्पष्ट तस्वीर बन जाती है जिस पर आप आश्वस्त हो कर काम कर सकें। ■बद्लाव के प्रति आप चिंतित हो सकते हैं उसका प्रबन्धन करने के लिए आपको परामर्शक आश्वस्त करता है कि जीने की नई शैली आपको किस प्रकार वर्तमान अनुचित वातावरण से मुक्त कर सकती है। ■अब आप परामर्शक की सलाह पर कुछ अभ्यास आरम्भ करते हैं और बदलाव का अनुभव होने लगता हैं। ■अंतिम चरण में आप अपनी समस्याओं को स्वयं हल करने लगते हैं और परामर्शक की आवश्यकता का अनुभव नही करते। ये वैसे ही है जैसे कि बच्चे को चलना सिखाने के लिए कुछ समय के लिए सम्भाल कर रखना पड़ता है फिर वह सारी उम्र अपना चलना सीखा हुआ भूल नही सकता।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
Use positive words in daily communication... Mantra affects our life?
Use positive words in daily communication... Mantra affects our life?
मंत्र विज्ञान पर अक्सर चर्चा होती है कि वे हमारे जीवन पर कितना असर डालते हैं। प्रभाव जानने के लिए कुछ छोटे छोटे प्रयोग कर के देखें... एक उदाहरण... निम्न लिखित वाक्यों पर विचार करें ... A. मैं खूबसूरत नही हूँ। X. मैं भद्दा हूँ। B. रमेश बहादुर नही है। Y.रमेश कायर है। C. आप जीत नही पाओगे। Z. आप तो हार जाओगे। तीनों वाक्यों पर तीन समुहों में लिखे इन वाक्यों पर गौर करें। पहली लाइन के दोनों वाक्यों A. और X. का भाव तो एक ही है पर दो अलग अलग शब्द काम में लिए गये हैं। इसी तरह दूसरे और तीसरे वाक्य समूह में भाव एक ही है पर शब्द अलग अलग काम में लिए गये हैं। केवल हाँ और ना का उपयोग करके शब्द का अर्थ विपरीत होते हुए भी वाक्य का अर्थ एक ही कर दिया गया है। खूबसूरत, बहादुर और जीत जैसे विधायक शब्द आपके जीवन में मंत्र का काम करते हैं। इसी तरह से भद्दा, कायर, हार जैसे शब्द भी आपके जीवन पर छाप छोड़ते हैं। हाँ और ना तो परिस्थिति जन्य है। परिस्थिति बदलते ही आप परिणाम से मुक्त हो सकते हैं पर विपरीत परिणाम मिले ये आवश्यक नही है। जैसे ... आप हारने से डरते हैं तो हो सकता है कि आपको प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर ही ना मिले और आप हारने से बच जाएं। पर जीतने की सम्भावना से भी आप काफी दूर हैं। वह भाव तो अभी आपके मन में बीज ही नही बना पाया है। अवसर मिलने पर भी बीज के अभाव में आप जीत नही पाएंगे। इस विषय वस्तु की वैज्ञानिक विवेचना भी किया जाना सम्भव हो गया है। जन साधारण विश्वास पूर्वक अपने प्रतिदिन के प्रयोग में लिए जाने वाले वाक्याँशों पर विचार करे और अपेक्षित बदलाव के लिए आश्वस्त रहें। गारण्टी से कहा जा सकता है कि बहुतों के जीवन में इतने से बद्लाव से चमत्कारिक प्रभाव दिखने लगेंगे।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
मंत्र विज्ञान पर अक्सर चर्चा होती है कि वे हमारे जीवन पर कितना असर डालते हैं। प्रभाव जानने के लिए कुछ छोटे छोटे प्रयोग कर के देखें... एक उदाहरण... निम्न लिखित वाक्यों पर विचार करें ... A. मैं खूबसूरत नही हूँ। X. मैं भद्दा हूँ। B. रमेश बहादुर नही है। Y.रमेश कायर है। C. आप जीत नही पाओगे। Z. आप तो हार जाओगे। तीनों वाक्यों पर तीन समुहों में लिखे इन वाक्यों पर गौर करें। पहली लाइन के दोनों वाक्यों A. और X. का भाव तो एक ही है पर दो अलग अलग शब्द काम में लिए गये हैं। इसी तरह दूसरे और तीसरे वाक्य समूह में भाव एक ही है पर शब्द अलग अलग काम में लिए गये हैं। केवल हाँ और ना का उपयोग करके शब्द का अर्थ विपरीत होते हुए भी वाक्य का अर्थ एक ही कर दिया गया है। खूबसूरत, बहादुर और जीत जैसे विधायक शब्द आपके जीवन में मंत्र का काम करते हैं। इसी तरह से भद्दा, कायर, हार जैसे शब्द भी आपके जीवन पर छाप छोड़ते हैं। हाँ और ना तो परिस्थिति जन्य है। परिस्थिति बदलते ही आप परिणाम से मुक्त हो सकते हैं पर विपरीत परिणाम मिले ये आवश्यक नही है। जैसे ... आप हारने से डरते हैं तो हो सकता है कि आपको प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर ही ना मिले और आप हारने से बच जाएं। पर जीतने की सम्भावना से भी आप काफी दूर हैं। वह भाव तो अभी आपके मन में बीज ही नही बना पाया है। अवसर मिलने पर भी बीज के अभाव में आप जीत नही पाएंगे। इस विषय वस्तु की वैज्ञानिक विवेचना भी किया जाना सम्भव हो गया है। जन साधारण विश्वास पूर्वक अपने प्रतिदिन के प्रयोग में लिए जाने वाले वाक्याँशों पर विचार करे और अपेक्षित बदलाव के लिए आश्वस्त रहें। गारण्टी से कहा जा सकता है कि बहुतों के जीवन में इतने से बद्लाव से चमत्कारिक प्रभाव दिखने लगेंगे।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246
How to Play Game of Black Money...
काला धन काला धन हमने तो बचपन में खूब खेला है। राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, उद्योगपतियों, धर्मगुरूओं का इस खेल से अभी पेट नही भरा। ये खेल भी क्रिकेट की तरह से अच्छे दर्शक बटोर लेता है इसलिए टेलीविजन पर इसे खूब दिखाया जाता है। इस खेल को कोई भी अपने घर पर दस पाँच दोस्तों के साथ खेल सकता है। बस शर्त ये है कि एक बच्चा अपने घर में किसी बुजुर्ग दादा, दादी, नाना, नानी का लाडला हो। अब खेल के नियम सीख लीजिए... ताश की दो चार जोड़िया मिला लीजिये। कुडीमार कहते थे हम तो जिस खेल के लिए तैयारी करते थे (आप क्या कहते थे आप जानो)। खेल समाप्त होते ही सारी ताश की जोड़िया अलग अलग कर के रखनी होती थी। ताकि बड़े बुजुर्ग लोग जब ताश उठाए तो उनको बावन पत्ते तुरंत मिल जाए। अब किसी ऐसे घर में जा कर बैठते थे जिसमें माता पिता को बच्चों के इकठ्ठा होकर खेलने में आपत्ति ना हो। इस सरल से खेल को खेलने के लिए अक्षर, गिनती का ज्ञान और ताश के पत्ते पहचानने तक की समझ पर्याप्त होती है। कुडीमार ( सब अपनी ढेरी से एक एक पत्ता फैंकते हैं जब दो पत्ते मैच कर जाते हैं तो जिसने बाद में पत्ता फैंका होता है वह ढेरी उठा कर ले जाता है) जिसके पत्ते समाप्त हो जाते थे वह हार जाता था। इस खेल में एक बैंक प्रणाली भी थी। जिस तरह से सोना चान्दी या घर आदि गिरवी रख कर लोग अपनी जरूरतों के लिए धन बैंक से लेते हैं वैसे ही ताश के रंगीन पत्तों को हर खिलाड़ी खेल के शुरू में ही सम्पत्ति की तरह से छुपा कर रख लेते हैं। जब 1-10 के पत्ते खेलते खेलते कोई जब सारे पत्ते खो देता तो जिसके पास अधिक पत्ते होते थे वह दूसरे के रंगीन पत्तों के बदले अलग अलग मुल्यों के अनुसार उसे धन (1-10 के पत्ते दे देता था)। अब ये सब ठीक ठीक चलता रहे तो जिन्दगी मजे से कट जाती है पर बीच में कभी कभी कालाधन कालाधन खेलना पड़ जाता था... ये बड़ा तकलीफ देने वाला होता था। होता ये था कि जिस घर में बैठ कर खेलते थे उस घर में एक दूधमुँहा बच्चा अपने दादाजी का लाडला था। वह खेलने की जिद करता था। ना खिलाने पर वह कुछ पते चुपाकर दादाजी की गोद में छुप जाता था ( जैसे आज वे पत्ते स्विट्जरलैंड में जमा हो जाते हैं)। अब इन दादाजी का बड़ा पोता अपने दादाजी के साथ धिंगा मुश्ती करता था कि वह वे पत्ते निकाल कर दे दे। दादाजी पत्ते देते नहीं थे, उसे खिलाने के लिए हमारे मित्र से आग्रह करते थे। पर हालत ये थी कि उसे खिलाते तो वह मनमानी हरकतें कर के खेल को बाधित करता था। दादा और दो पोतों का ये खेल कई बार इतना लम्बा होता था कि घर आए अन्य सभी मित्र अपना खेल छोड़ इस छुपे धन को निकालने की दादा और पोतों की कसरत को देखते रहते और समय बीत जाता ( हमारी तो अर्थव्यवस्था ही उस दिन थम जाती थी)। तब तो बचपना था पर आज समझदारी आ गई... अगर आज भी वही खेल खेलने का मन करे तो सोचता हूँ कि उन पोतों और दादा को अकेला छोड़ कम पत्तों को और छाप कर अपनी ताश की ढेरी में डाल कर खेल शुरू कर दूँ। हमारे चलते खेल को देख कर अब वे पोते अपने दादा को साथ ला कर हमारे खेल में झाँकने की भी कौशिश करें तो उनको वह सबक सिखाऊँ कि बस... (बचपन में इन दादा पोतों की धिंगामुश्ती ने हमें खून के आँसू रुलाया था, क्या करते खेलने के लिए घर भी इनका ही था, ताश की जोड़ी भी कुछ सम्पन्न घर के बच्चों की ही थी)। क्या आज भी इस देश में वही दादा और लाडले पोते राज करते हैं? इनको निकाल बाहर कर अपना खेल शुरू क्यों नही कर देते? इस अर्थव्यवस्था में जितने ताश के नोट कम हो गए वे छाप कर और क्यों नहीं डाल देते? इन लोगों पर कड़ी नजर क्यों नहीं रखते कि वे डुप्लीकेट घोषित कर दिया गया वह हिसाब इस अर्थव्यवस्था में दुबारा ना मिला दे। काले धन का खेल केवल इतना ही थोड़े है, असली खेल तो एक और भी खेलते थे कुछ खिलाड़ी हमारे बचपन के खेल में... कुछ चालाक खिलाड़ी पत्ते बांटते समय या तो रंगीन पत्ते अधिक ले लेते थे या वे अपने घर से ही छुपा कर बेकार होगई ताश में से मिलते जुलते डिजाइन के ले कर आते थे। उन नकली ताश के नोट मिलाने वालों को कभी टेलेविजन पर खेलते नही देखते हम लोग। क्या इस खेल में जनता का आकर्षण कम है? सोचो सोचो
Subscribe to:
Posts (Atom)