बाजार में उत्पाद या अन्य सेवाओं पर मिलने वाली छूट को डिस्काउण्ट कहते हैं । इसी प्रकार किसी शिक्षण संस्थान या शिक्षक द्वारा अपने कार्य पर दी जाने वाली छूट को स्कॉलरशिप कहते हैं। मान लीजिये किसी शिक्षक ने अपने अध्यापन कार्य की फीस सालाना 10, 000 रूपये तय की हुई है। जब किसी छात्र का उसकी कॉचिंग में पंजीयन होता है तो उसकी मेरिट, जाति, आय आदि के आधार पर कॉचिंग का मालिक शिक्षक उसे जितनी छूट देना चाहता है उस राशि का एक अलग से आवेदन पत्र भरा लेता है। जितनी राशि का ये आवेदन भरा जाता है, कुल आवेदनों में दी गई इस प्रकार की छूट का योग स्कॉलरशिप कहलाता है। बड़े बड़े शिक्षण� संस्थानों द्वारा जब अपने विज्ञापनों में इस राशि का स्कॉलरशिप वितरण के रूप में उल्लेख किया जाता है तो अभिभावक और विद्यार्थियों के लिए यह आकर्षण का केन्द्र बन जाता है।
इसी प्रकार से मानद उपाधियों का खेल समझना चाहिए। बाजार में जिस प्रकार निर्माता अपनी दवाइयाँ सैम्पल के रूप में चिकित्सकों को बाँटता है या कोई अन्य उत्पादक किसी दूसरे उत्पाद के साथ अपना उत्पाद फ्री देता है तो वह अपने उत्पाद का प्रचार कर रहा होता है। इसी प्रकार समाज के प्रतीष्ठित व्यक्तियों को उनके जीवन भर के अनुभव या उपलब्धियों के आधार पर कोई विश्वविद्यालय डॉक्टरेट या एसोसिएट की मेडल देता है तो समाज में उस विश्वविद्यालय की पहचान बन जाती है। वे अपने विश्वविद्यालय की पहचान उस नामचीन आदमी से जोड़ कर स्कूल कॉलेजों में बच्चों के सामने प्रजेंटेशन दे कर अपने वहाँ आगे का अध्ययन के लिए प्रेरित करते हैं।
भारत में स्कॉलरशिप (डिस्काउण्ट) और उपाधियों (सैम्पल) का दौर अभी शुरू ही हुआ है। सरकार चाहे तो बाजार के इन तौर तरीकों को बढावा दे कर निजी क्षेत्र में लगे शिक्षकों को भीषण शोषण से बचा सकती है। योग्य व्यक्तियों को शिक्षा क्षेत्र में रोक सकती है। अन्यथा यहाँ तो हाल ये है कि किसी युवक के पास ऑप्शन हो की ट्रैफिक पुलिस की नौकरी और विध्यालय में टीचर होना दो में से किसी एक का चुनाव करना हो तो वह दिल्ली के किसी व्यस्त चौराहे पर अपनी ट्रैफिक पुलिस की ड्यूटि लगवाना पसन्द करेगा।