भारतीय शिक्षा - बूचड़खानों के हाथ में गौशाला ?

जी हाँ ! 

कल्पना करो, गौशाला में गाय की जो भूमिका है वहीं विद्यालयों में शिक्षक की है। मान लीजिए 100 परिवार मिल कर शुद्ध दूध पीने के लिए एक गौशाला बनाने के इच्छुक किसी व्यक्ति जिसका नाम सुरेश है से सम्पर्क करते हैं। 100 परिवारों को शुद्ध दूध चाहिए और एक व्यक्ति गौशाला चलाने का इच्छुक है। 100 परिवारों ने मिल कर अनुमान कर लिया कि 20 गायों की आवश्यकता है,  गायों की देखभाल करने के लिए चार आदमियों का नियमित खर्च आएगा, सुरेश के भूमि-भवन के खर्च और उसकी जीविका का खर्च भी अनुमान कर लिया।

सबसे अधिक जरूरत थी गायों के चारे पानी के लिए नियमित लागत की। सब ने मिलकर सुरेश को अच्छी गाएं लाने के लिए कहा और आश्वासन दिया कि वे चारे पानी का नियमित खर्च उठा लेंगे। अच्छा और बड़ी मात्रा में दूध सबको मिलने लगेगा, 100 परिवारों को, गाय की देखभाल करने वाले कर्मचारियों और सुरेश के परिवार के लिए भी खूब दूध हो सकता है। मान लीजिए कि गाएँ कामधेनु है और अच्छी खुराक मिले तो वे मनमाना दूध दे सकती है। एक ही बार में अधिक मात्रा मे दूध चाहिए तो गायों की संख्या बढाने से काम चलेगा क्यों कि गाय की थकान और एक बार में उसके दूध देने की क्षमता सीमित है। गाय बढ़ाने पर हर गाय के लिए चारे की अतिरिक्त व्यवस्था करनी होगी।

आइये, अब देखते हैं इस गौशाला की कार्यप्रणाली क्या है और कैसी होनी चाहिए। 

आरम्भ में तो गायों के चारे पानी, प्यार दुलार, देखभाल में सब रुचि रखते हैं। सुरेश भी अपने प्रायोजक 100 परिवारों को प्रदर्शित करता है कि वह किस प्रकार से गायों को चारा पानी देता है, लाड प्यार करता है, देखभाल करता है। गायें अच्छा दूध भी दे रही है।

अनुमान है कि 7% तो गौशाला के वेतन, किराया, बिजली, वाहन आदि अन्य व्यय हैं परंतु 93% भुगतान चारे पानी पर खर्च हो जाता है।  देखा जाए तो किसी को कोई आपत्ति नही होनी चाहिए, अच्छा दूध मिल रहा है, सब खुश हैं।

धीरे धीरे सुरेश के मन में कुविचार आने लगे।

सुरेश ने गायों के चारे में ईमानदारी छोड़ दी। गायों को समय पर चारा पानी देना बन्द कर दिया। जान बूझ कर ऐसी गाएं खरीद लाया जो भले ही दूध ना दे पर कम से कम चारा खा कर दिखाने भर के लिए जिन्दा रहे। गौशाला में गायों की संख्या बनी रहे ताकि प्रायोजक परिवारों से नियमित धन मिलता रहे।

हैरानी की बात तो ये है कि साल में लगभग 3 माह तो ये परिवार दूध मंगाते ही नही, छुट्टियों में इधर उधर घूमने चले जाते हैं। उस अवधि के लिए भी ये परिवार गायों के चारे पानी का इंतजाम कर के जाते हैं। परंतु सुरेश महोदय क्या करते हैं कि उस अवधि में गौशाला खाली कर देते हैं। गायों को उनके हाल पर गली मौहल्ले में चरने के लिए आवारा पशुओं की तरह छोड़ देते हैं। जब दुबारा दूध निकालने का समय आता है तो सुरेश ज्यादातर समय तो नयी गायें लाने तलाशने में खर्च कर देता है। चारे की बचत हो जाती है।

ऐसे हाल में दूध शुद्ध कहाँ से मिलेगा? जब छुट्टियों के बाद दूध की आवश्यकता होती है तो भी वह पहले से गायों की व्यवस्था करके नही रखता। सुरेश आवारा गायों में से सबसे सस्ती गाय ढ़ूँढने में लगता है। 

गायों पर क्रूरता पूर्वक जितने अत्याचार किए जा सकते हैं वे सारे तरीके आजमा कर उनकी आवश्यक उपस्थिति भर गौशाला में रखी जाती है। 

(बी.एड., पॉलीटेक्निक, इंजी., नर्सिंग आदि कॉलेज के लिए तो निरीक्षण के टाइम नियामक संस्थाओं को दिखाने के लिए सजी सजाई गायें किराये पर भी लेकर आते हैं) 

इसके अलावा, सुरेश महोदय अब चारे के नाम पर पाए सारे धन का उपयोग अपनी निजी जिन्दगी के लिए करने लगे हैं। रजिस्टर में चारे का पूरा हिसाब रखा जाता है पर वास्तव में उस धन का क्या उपयोग होता है ये धन खर्च करने वाले प्रायोजक ( शिक्षा के मामले में अभिभावक) को छोड़ कर सब जानते हैं। 

सुरेश जी अब गौसेवा तो भूल गये हैं और गौशालाओं के नाम पर मिलने वाले धन की तरफ आकर्षित हो गये हैं। नई से नई गौशाला बनवाना, गायें पालने का दिखावा करना, गायों के नाम पर समाज से चारे पानी का पैसा इक्कठा करना और निर्दयता पूर्वक गायों पर अत्याचार कर अपनी अमीरी बढ़ाना इनका मकसद बन गया है। 

इनके कारनामों की कुछ और बानगियाँ देखिए... 

ये गायों को समझाते हैं कि हमारी गौशाला में कम से कम चारा खा कर जिन्दा रहो, खाली समय में बाहर चरने के लिए छोड़ दिया जाएगा, समाज में घूमते फिरते कहीं भी चारा मिले तो खाओ और जिन्दा रहो। ये इसलिए कि गाय पर जब तक किसी गौशाला की पहचान की छाप ना लगी हो लोग आवारा गाय समझ कर उसे रोटी नही देते। तो इस आवारगी की पहचान से बचने के लिए ना चाहते हुए भी गाय को किसी गौशाला की छाप लगवानी पड़ती है। (शिक्षक बेचारे प्राइवेट ट्यूशन से अतिरिक्त आय करने के लिए किसी स्कूल से जुड़े रहना जरूरी समझते हैं वरना इनको ट्यूशन नही मिलती)  

हैरानी की बात और देखिए कि गायों का दूध निकालते समय तो इनको एक साथ खड़ा कर के एक दूसरे से होड़ करने के लिए कहा जाता है कि देखो सब गायें कितना ज्यादा दूध दे रही है। 

लाचार भूखी गायों से अपेक्षा की जाती है कि वे एक दूसरे को देख कर ज्यादा दूध देने के लिए प्रोत्साहित हों। परंतु जब चारा खिलाने और पानी पिलाने की बारी आती है तो हरेक गाय को अलग अलग बाँध कर बिना एक दूसरे की नजर में लाए परोसा जाता है और सब गायों को कहा जाता है कि दूसरी गौशालाओं की गायें भी इतना ही चारा खा कर जिन्दा है तो तुम क्यों नही रह सकती ? 

चारे की मात्रा बढ़ाने की बात करने वाली गाय को ये सुरेश महोदय अपनी गौशाला में जगह भी नही देते। उसे गायों की नेतागिरी करने के आरोप में तत्काल बाहर कर दिया जाता है। 

क्या कोई नियमित चारे पानी का पैसे देने वाला इस गौशाला का सदस्य कभी अक्ल लगाएगा तो उसे समझ नही आएगा कि कितनी महंगी गौशाला चल रही है? वह गायों की सेहत और उनके रहने खाने के तौर तरीके देखकर अनुमान नही लगा लेगा कि गलती कहाँ हो रही है? 

सुरेश के प्रति गौशालाओं के सदस्यों का भरोसा तभी तक है जब तक उनको  (परिवारों के मुखिया को) पता ना चले कि घर पर जो दूध आ रहा है उसमें कितनी मिलावट है। गायों को अपनी दीन हीन हालत इन परिवारों के मुखिया को दिखाने भर की जरूरत है। ये बेचारे धन खर्च करने वाले गौशालाओं के बाहरी रंग रोगन, चमक दमक देख कर आनन्द मना रहे हैं मानो कि जैसे अन्दर गायें कितने सुख से रह रही होगी।  

मित्रों अगर आप निजी स्कूल के शिक्षक हैं तो अब तक समझ आ गया होगा कि स्कूल द्वारा बच्चों के लिए अभिभावक से जो चार्ज किया जाता है उसमें ट्यूशन  फीस के नाम पर जो राशि होती है वह पूर्णतया शिक्षक का चारा पानी ही होती है।

अभिभावकों के साथ बैठ कर उनको जब तक आप अपनी समस्याओं से अवगत नही कराओगे आपका शोषण यूँ ही होता रहेगा। इस नो ट के साथ ही मैंने अभिभावकों के लिए भी एक विचारणीय पत्र लिखा है। 

अगर शिक्षक हैं तो आप दोनों पत्रों पर स्वयं विचार करें और अभिभावकों से इन मुद्दों पर चर्चा करें तो समाज में शिक्षा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिल सकता है। 

अभी तक निजी विद्यालयों के अध्यापकों का कोई संघ बनने का रास्ता नही सूझ रहा था परंतु अब समय आ गया है कि अपने हितों पर सामुहिक ढंग से विचार करने के लिए उनको बैठना चाहिए। यह अभिभावक, छात्र, शिक्षक समुदाय, स्कूल संचालकगण सबके हित में है।  

अगर किसी प्रकार के सुझाव हों तो आप अवश्य अवगत कराएं। इस पत्र का प्रिंट आउट निकाल कर ज्यादा से ज्यादा शिक्षकों तक इसे पहुँचाएं।

धन्यवाद।

सुरेश कुमार शर्मा,
मनोविश्लेषक
ई-144, अग्रसेन नगर,
चूरू 331001
9929515246

ध्यान दें: इस पत्र का उद्देश्य केवल समस्या की चर्चा करना नही है। आज ग्रीन ऍकाउंटिंग की विचारधारा के आधार पर यह सम्भव हो गया है कि निजि विद्यालयों ( विशेषकर विद्या मन्दिरों में जहाँ शिक्षा का उद्देश्य सेवा है व्यवसाय नही ) में प्रत्येक शिक्षक को सरकारी शिक्षकों के बराबर का मानदेय दिया जा सकता है। बल्कि अपने परिवार और समाज में आज जहाँ वे बेचारे और लाचार अध्यापक समझे जाते हैं उनका सामाजिक स्तर भी सरकारी शिक्षकों के मुकाबले बेहतर हो जाएगा। मिल बैठ कर चर्चा करने के लिए आप सब एक बार पुन: आमंत्रित हैं। धन्यवाद।