पहचान का संकट खाए जा रहा है...

एक्रेडिशन, ऑथोराइजेशन, रजिस्ट्रेशन, एफिलिएशन, सर्टिफिकेशन ... UGC, State Board, Center Board, AICTE, DDE और इनके आपस के झगड़े... हे भगवान। फिर शिक्षा मंत्रालय का इन झगड़ों के निपटाने के लिए एक नया आयोग, कमेटी, जॉइंट कमेटी बनाना। उस कमेटी, आयोग को स्थाई दर्जा दे देना। आपको लगता नही कि ये एक घोर षड्यंत्र है?

पहचान का संकट शिक्षा में सब जगह व्याप्त है। शिक्षा के उपभोक्ता को सरकार ने इतना आतंकित कर रखा है कि बेचारा दो अक्षर सीखने के लिए पाँच पैसा खर्च करते समय भी काँप जाता है। लगता है कि जैसे सीखने वाला किसी से अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कहीँ पैसे दे देता है तो सिखाने वाला और सीखने वाले दोनों कोई राष्ट्रद्रोह कर रहे हैं।

मिंया बीबी राजी तो क्या करेगा काजी। जैसी कहावत भी अब बेकार हो रही है... एक दुकान किसी को कोई हूनर बेच रही है, उसे जो कुछ आता था लिख कर दे दिया कि मैं सर्टिफाइ कर रहा हूँ कि ...... ने ..... दिन में ..... अमुक कॉर्स पूरा कर लिया है। तो उन लोगों को बेचैनी हो जाती है जो किसी को सर्टिफाइ करने के लिए ठेका लिए हुए हैं। फिर एक आदमी को उसकी दुकान में असंतुष्ट रहने के लिए ही भेजा जाता है। कोर्ट केस होता है। दुकान बन्द करा दी जाती है।

आखिर ये पहचान और उस पहचान पत्र को जारी करने वाली ठेकेदारी किसी नागरिक को दे क्या रही है? बन्द कमरों में से चर्चाएं बाहर निकल कर आती है कि जवान होती भीड़ को कॉर्स करने के नाम पर अटकाए रखो, अगर ये भीड़ उग्र हो गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे। जिस किसी तरह से ये धीरज से अपनी आयु की 25वीं देहली पार करले तो इसका गुस्सा शांत हो जाएगा। फिर दो वक्त की रोटी के लिए कहीं मरता खपता रहेगा।

औपचारिक शिक्षा संस्थानों की तुलना आप एक ऐसे स्टोर से करें जिसमें मालिक, नौकर मिल कर उपभोक्ता को एक अच्छा पैकिंग का डिब्बा देने, डिलिवरी सुपूर्दगी के सैकड़ों आपसी प्रमाणक (जिससे सब एक दूसरे पर माल की पूर्ति की गारण्टी की जिम्मेदारी डाल सकें) तैयार करने में समय, संसाधन खर्च कर देते हैं।

विद्यार्थी (ग्राहक) को सैम्पल मात्र दिखा कर अच्छा पैसा झटक लिया जा रहा है। सत्र पूरा हो जाता है और ग्राहक को मिलता है बाबाजी का ठुल्लू ( जैसे कॉमेडी सीरियल में कपिल देता है)।

अनौपचारिक शिक्षा संस्थान समाज को अपनी जिम्मेदारी पर खड़े करने चाहिए। भले ही आपको मान्यता प्राप्त पैकिंग प्रमाण पत्र ना मिले पर माल तो मिलेगा ना अपनी पसन्द का ?