A friend is trying to be a public speaker and motivator... Part II

A friend is trying to be a public speaker and motivator... Part I

Jyotish part I

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया नही शिक्षातंत्र ...

न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और विधायिका में होने वाले निरंतर टकराव का एक मात्र कारण है कि विश्वविद्यालयों की घोर उपेक्षा की गई है जब कि राज्यपाल और राष्ट्रपति इनके पदेन कुलपति हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया नही शिक्षा तंत्र है। सूचना और प्रसारण तो शिक्षा का एक हिस्सा मात्र है जो बैक ग्राउण्ड में काम करने वाली टीम ना हो तो मनमाने खेल खेलने लगती है। कल्पना करो कोई और खिलाडी ही ना हो और बैक ग्राउण्ड टीम ना हो तो सचिन तेन्दुलकर मैदान में जो कर दिखाए वही सब खेल हो जाएगा ना ? बस हमारे मीडिया का यही हाल हो गया है। इतिहास का चाणक्य पढाने के बजाय हमें भारतीय विश्वविद्यालयों में शेष तीनों स्तम्भों की महत्वपूर्ण सामग्री मांगे जाने पर तत्काल समीक्षा हेतु आनी चाहिए।
भारत में भी मांग हो कि किसी भी बिल पर कोई सांसद, विधायक हाथ उठाए उससे पहले उस बिल पर उसका एग्जाम लिया जाना चाहिए, जिससे तय हो कि उसने उस बिल से होने वाले हित अहित ठीक से समझ लिए हैं। अगर ऐसा ना हो तो उसे उस बिल पर वोट करने का अधिकार नही होना चाहिए... आर्थिक घोटालों की बाढ़, पर्यावरण समस्या, विकास का असंगत मोडल, 1947 की आजादी के बाद भी जनसाधारण की गुलाम की सी मानसिकता इन सब का समाधान केवल यही है कि शिक्षातंत्र को प्रोटोकॉल के तहत जो अधिकार प्रदत्त है ही उनका उपयोग करना चाहिए देश भर के शिक्षकों और स्नातक विद्यार्थियों को।   

क्या हमारी शिक्षा प्रणाली एक किसान से भी कम समझदार है...

एक किसान जब फसल काटता है तो सबसे बढ़िया दाना छाँट कर बीज के रूप में अगली फसल के लिए संजो कर रख लेता है। भारत का शिक्षा तंत्र इस तरह की किसानी में बिलकुल फिस्सडी है। यहाँ हर वर्ष बाजार से सबसे घटिया बीज ( शिक्षक ) ढ़ूँढ कर लाया जाता है। हाथ की मजदूरी से भी सस्ती दर पर काम करने को राजी आदमी यहाँ के स्कूलों में देश का भविष्य निर्माण कर रहे हैं।

ज्योतिष मानने का नही, शोध का विषय...

विज्ञान ने पदार्थ में परिवर्तन की दर का सम्बन्ध अब ग्रहों नक्षत्रों की पारस्परिक दूरी से जोड़ दिया है। कोई पदार्थ किसी विशाल पिंड के करीब होता है तो उसमें परिवर्तन की दर धीमी हो जाती है और यही पदार्थ जब विशाल पिंड से दूर चला जाता है तो इसमें परिवर्तन की दर बढ जाती है। ग्रह नक्षत्रों की पारस्परिक सापेक्षिक दूरी परिवर्तन शील है। हमारे सोर मण्डल में भी ग्रहों, उपग्रहों की सापेक्ष दूरी गणितीय नियमों से तालबद्ध ढ़ंग से बदलती रहती है। तो अन्य ग्रहों सहित पृथ्वी पर पदार्थ में परिवर्तन की दर भी समय समय पर बदलती रहती है। भारत के प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ सिद्धाँत शिरोमणी में इस परिवर्तन की प्रकृति का बारिकी से अध्ययन किया गया है। कालांतर में इसे मनुष्य के जीवन में आने वाले तरह तरह के परिवर्तनों से भी जुड़ा हुआ पाया गया। क्यों कि मनुष्य की रासायनिक संरचना का मनुष्य के भाव, व्यवहार से सीधा सम्बन्ध है। जब ग्रहों की सापेक्षिक दूरियों में परिवर्तन होता है तो निश्चित ही मनुष्य के रासायनिक संघटन में भी अंतर आयेगा। जो भाव और व्यवहार को भी प्रभावित करेगा। व्यवहार और भाव परिवर्तन से मनुष्य की उपलब्धियाँ भी प्रभावित होंगी। ज्योतिष में दशा, अंतर दशा, प्रत्यंतर दशा समय के साथ बदलने वाले पदार्थ में परिवर्तन का ही अध्ययन है। जिसका उपलब्धियों के रूप में आकलन किया जाता है।

प्रारम्भिक ज्योतिष ...

शिक्षकों के लिए आत्म मुल्याँकन का समय ...

शिक्षक?जी नही, आपने गलत पहचाना। और कुछ करने को था नही इसलिए जीभ का मजदूर बन गया हूँ। सरकारी स्कूल में नोकरशाह के तलवे चाटता हूँ। प्राइवेट स्कूल में मालिक की ठोकरों में पलता हूँ। नई नस्ल की सोच को मारने का हूनर सीख गया हूँ। हमारे गिरोह से कुछ बच जाते है तो बड़ी कम्पनी में नोकर हो जाते हैं। अधमरे सरकारी नोकर हो जाते हैं। हैरान हूँ ये सोच कर कि इन मुर्खों की बस्ती में लोग मुझे कभी कभी सम्मानित भी करते हैं। क्या इसलिए कि कुछ लोग अपनी सोच बचा कर ले जाते हैं मेरी लाख कोशिश के बावजूद कुछ लोगों की सोच जिन्दा रह जाती है। मुझे आज भी अपने बच्चों के लिए एक शिक्षक की तलाश है।

भारतीय शिक्षा - बूचड़खानों के हाथ में गौशाला ?

जी हाँ ! 

कल्पना करो, गौशाला में गाय की जो भूमिका है वहीं विद्यालयों में शिक्षक की है। मान लीजिए 100 परिवार मिल कर शुद्ध दूध पीने के लिए एक गौशाला बनाने के इच्छुक किसी व्यक्ति जिसका नाम सुरेश है से सम्पर्क करते हैं। 100 परिवारों को शुद्ध दूध चाहिए और एक व्यक्ति गौशाला चलाने का इच्छुक है। 100 परिवारों ने मिल कर अनुमान कर लिया कि 20 गायों की आवश्यकता है,  गायों की देखभाल करने के लिए चार आदमियों का नियमित खर्च आएगा, सुरेश के भूमि-भवन के खर्च और उसकी जीविका का खर्च भी अनुमान कर लिया।

सबसे अधिक जरूरत थी गायों के चारे पानी के लिए नियमित लागत की। सब ने मिलकर सुरेश को अच्छी गाएं लाने के लिए कहा और आश्वासन दिया कि वे चारे पानी का नियमित खर्च उठा लेंगे। अच्छा और बड़ी मात्रा में दूध सबको मिलने लगेगा, 100 परिवारों को, गाय की देखभाल करने वाले कर्मचारियों और सुरेश के परिवार के लिए भी खूब दूध हो सकता है। मान लीजिए कि गाएँ कामधेनु है और अच्छी खुराक मिले तो वे मनमाना दूध दे सकती है। एक ही बार में अधिक मात्रा मे दूध चाहिए तो गायों की संख्या बढाने से काम चलेगा क्यों कि गाय की थकान और एक बार में उसके दूध देने की क्षमता सीमित है। गाय बढ़ाने पर हर गाय के लिए चारे की अतिरिक्त व्यवस्था करनी होगी।

आइये, अब देखते हैं इस गौशाला की कार्यप्रणाली क्या है और कैसी होनी चाहिए। 

आरम्भ में तो गायों के चारे पानी, प्यार दुलार, देखभाल में सब रुचि रखते हैं। सुरेश भी अपने प्रायोजक 100 परिवारों को प्रदर्शित करता है कि वह किस प्रकार से गायों को चारा पानी देता है, लाड प्यार करता है, देखभाल करता है। गायें अच्छा दूध भी दे रही है।

अनुमान है कि 7% तो गौशाला के वेतन, किराया, बिजली, वाहन आदि अन्य व्यय हैं परंतु 93% भुगतान चारे पानी पर खर्च हो जाता है।  देखा जाए तो किसी को कोई आपत्ति नही होनी चाहिए, अच्छा दूध मिल रहा है, सब खुश हैं।

धीरे धीरे सुरेश के मन में कुविचार आने लगे।

सुरेश ने गायों के चारे में ईमानदारी छोड़ दी। गायों को समय पर चारा पानी देना बन्द कर दिया। जान बूझ कर ऐसी गाएं खरीद लाया जो भले ही दूध ना दे पर कम से कम चारा खा कर दिखाने भर के लिए जिन्दा रहे। गौशाला में गायों की संख्या बनी रहे ताकि प्रायोजक परिवारों से नियमित धन मिलता रहे।

हैरानी की बात तो ये है कि साल में लगभग 3 माह तो ये परिवार दूध मंगाते ही नही, छुट्टियों में इधर उधर घूमने चले जाते हैं। उस अवधि के लिए भी ये परिवार गायों के चारे पानी का इंतजाम कर के जाते हैं। परंतु सुरेश महोदय क्या करते हैं कि उस अवधि में गौशाला खाली कर देते हैं। गायों को उनके हाल पर गली मौहल्ले में चरने के लिए आवारा पशुओं की तरह छोड़ देते हैं। जब दुबारा दूध निकालने का समय आता है तो सुरेश ज्यादातर समय तो नयी गायें लाने तलाशने में खर्च कर देता है। चारे की बचत हो जाती है।

ऐसे हाल में दूध शुद्ध कहाँ से मिलेगा? जब छुट्टियों के बाद दूध की आवश्यकता होती है तो भी वह पहले से गायों की व्यवस्था करके नही रखता। सुरेश आवारा गायों में से सबसे सस्ती गाय ढ़ूँढने में लगता है। 

गायों पर क्रूरता पूर्वक जितने अत्याचार किए जा सकते हैं वे सारे तरीके आजमा कर उनकी आवश्यक उपस्थिति भर गौशाला में रखी जाती है। 

(बी.एड., पॉलीटेक्निक, इंजी., नर्सिंग आदि कॉलेज के लिए तो निरीक्षण के टाइम नियामक संस्थाओं को दिखाने के लिए सजी सजाई गायें किराये पर भी लेकर आते हैं) 

इसके अलावा, सुरेश महोदय अब चारे के नाम पर पाए सारे धन का उपयोग अपनी निजी जिन्दगी के लिए करने लगे हैं। रजिस्टर में चारे का पूरा हिसाब रखा जाता है पर वास्तव में उस धन का क्या उपयोग होता है ये धन खर्च करने वाले प्रायोजक ( शिक्षा के मामले में अभिभावक) को छोड़ कर सब जानते हैं। 

सुरेश जी अब गौसेवा तो भूल गये हैं और गौशालाओं के नाम पर मिलने वाले धन की तरफ आकर्षित हो गये हैं। नई से नई गौशाला बनवाना, गायें पालने का दिखावा करना, गायों के नाम पर समाज से चारे पानी का पैसा इक्कठा करना और निर्दयता पूर्वक गायों पर अत्याचार कर अपनी अमीरी बढ़ाना इनका मकसद बन गया है। 

इनके कारनामों की कुछ और बानगियाँ देखिए... 

ये गायों को समझाते हैं कि हमारी गौशाला में कम से कम चारा खा कर जिन्दा रहो, खाली समय में बाहर चरने के लिए छोड़ दिया जाएगा, समाज में घूमते फिरते कहीं भी चारा मिले तो खाओ और जिन्दा रहो। ये इसलिए कि गाय पर जब तक किसी गौशाला की पहचान की छाप ना लगी हो लोग आवारा गाय समझ कर उसे रोटी नही देते। तो इस आवारगी की पहचान से बचने के लिए ना चाहते हुए भी गाय को किसी गौशाला की छाप लगवानी पड़ती है। (शिक्षक बेचारे प्राइवेट ट्यूशन से अतिरिक्त आय करने के लिए किसी स्कूल से जुड़े रहना जरूरी समझते हैं वरना इनको ट्यूशन नही मिलती)  

हैरानी की बात और देखिए कि गायों का दूध निकालते समय तो इनको एक साथ खड़ा कर के एक दूसरे से होड़ करने के लिए कहा जाता है कि देखो सब गायें कितना ज्यादा दूध दे रही है। 

लाचार भूखी गायों से अपेक्षा की जाती है कि वे एक दूसरे को देख कर ज्यादा दूध देने के लिए प्रोत्साहित हों। परंतु जब चारा खिलाने और पानी पिलाने की बारी आती है तो हरेक गाय को अलग अलग बाँध कर बिना एक दूसरे की नजर में लाए परोसा जाता है और सब गायों को कहा जाता है कि दूसरी गौशालाओं की गायें भी इतना ही चारा खा कर जिन्दा है तो तुम क्यों नही रह सकती ? 

चारे की मात्रा बढ़ाने की बात करने वाली गाय को ये सुरेश महोदय अपनी गौशाला में जगह भी नही देते। उसे गायों की नेतागिरी करने के आरोप में तत्काल बाहर कर दिया जाता है। 

क्या कोई नियमित चारे पानी का पैसे देने वाला इस गौशाला का सदस्य कभी अक्ल लगाएगा तो उसे समझ नही आएगा कि कितनी महंगी गौशाला चल रही है? वह गायों की सेहत और उनके रहने खाने के तौर तरीके देखकर अनुमान नही लगा लेगा कि गलती कहाँ हो रही है? 

सुरेश के प्रति गौशालाओं के सदस्यों का भरोसा तभी तक है जब तक उनको  (परिवारों के मुखिया को) पता ना चले कि घर पर जो दूध आ रहा है उसमें कितनी मिलावट है। गायों को अपनी दीन हीन हालत इन परिवारों के मुखिया को दिखाने भर की जरूरत है। ये बेचारे धन खर्च करने वाले गौशालाओं के बाहरी रंग रोगन, चमक दमक देख कर आनन्द मना रहे हैं मानो कि जैसे अन्दर गायें कितने सुख से रह रही होगी।  

मित्रों अगर आप निजी स्कूल के शिक्षक हैं तो अब तक समझ आ गया होगा कि स्कूल द्वारा बच्चों के लिए अभिभावक से जो चार्ज किया जाता है उसमें ट्यूशन  फीस के नाम पर जो राशि होती है वह पूर्णतया शिक्षक का चारा पानी ही होती है।

अभिभावकों के साथ बैठ कर उनको जब तक आप अपनी समस्याओं से अवगत नही कराओगे आपका शोषण यूँ ही होता रहेगा। इस नो ट के साथ ही मैंने अभिभावकों के लिए भी एक विचारणीय पत्र लिखा है। 

अगर शिक्षक हैं तो आप दोनों पत्रों पर स्वयं विचार करें और अभिभावकों से इन मुद्दों पर चर्चा करें तो समाज में शिक्षा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिल सकता है। 

अभी तक निजी विद्यालयों के अध्यापकों का कोई संघ बनने का रास्ता नही सूझ रहा था परंतु अब समय आ गया है कि अपने हितों पर सामुहिक ढंग से विचार करने के लिए उनको बैठना चाहिए। यह अभिभावक, छात्र, शिक्षक समुदाय, स्कूल संचालकगण सबके हित में है।  

अगर किसी प्रकार के सुझाव हों तो आप अवश्य अवगत कराएं। इस पत्र का प्रिंट आउट निकाल कर ज्यादा से ज्यादा शिक्षकों तक इसे पहुँचाएं।

धन्यवाद।

सुरेश कुमार शर्मा,
मनोविश्लेषक
ई-144, अग्रसेन नगर,
चूरू 331001
9929515246

ध्यान दें: इस पत्र का उद्देश्य केवल समस्या की चर्चा करना नही है। आज ग्रीन ऍकाउंटिंग की विचारधारा के आधार पर यह सम्भव हो गया है कि निजि विद्यालयों ( विशेषकर विद्या मन्दिरों में जहाँ शिक्षा का उद्देश्य सेवा है व्यवसाय नही ) में प्रत्येक शिक्षक को सरकारी शिक्षकों के बराबर का मानदेय दिया जा सकता है। बल्कि अपने परिवार और समाज में आज जहाँ वे बेचारे और लाचार अध्यापक समझे जाते हैं उनका सामाजिक स्तर भी सरकारी शिक्षकों के मुकाबले बेहतर हो जाएगा। मिल बैठ कर चर्चा करने के लिए आप सब एक बार पुन: आमंत्रित हैं। धन्यवाद।  





शिक्षा के बाजारीकरण पर बहस का ढोंग ?

एक छद्म बहस शिक्षा के क्षेत्र में चलती है कि शिक्षा का बाजारीकरण होना चाहिए या नही। इस बहस को वे लोग प्रायोजित करते हैं जो शिक्षा को लूट का तंत्र बनाए हुए हैं अथवा वे नादान जो इनके बहकावे में आते हैं। विकास की अवस्था की दृष्टि से अभी भारत की वर्तमान शिक्षा आकार ग़्रहण कर रही है। ( क्षमा करें नालन्दा, तक्षशीला के वकीलगण एकबार) जब कोई स्थिति आकार ले रही है तो अभी समाज में केवल स्कूलिंग सर्टिफिकेट का ही मूल्य है, शिक्षा का नही। ये वैसे ही है जैसे बचपन में हम बड़ों की मूछ देख कर खुद के लिए एक नकली मूँछ लगाते हैं। सर्टिफिकेट तंत्र से जुड़े लोग अब देश में ठीक से कमाने भी लगे हैं। आप डिग्री बोलिए वे मूल्य बता देंगे। प्रिंटिंग प्रेस आजकल अच्छे सर्टिफिकेट छाप देती है। बस इस सर्टिफिकेशन का अधिकार उन लोगों को है जो विभिन्न नियामक प्राधिकरणों की फाइलों का पेट उनके द्वारा माँगे गए कागजातों से भर देते हैं। जो लोग धन कमाना चाहते हैं उनको स्वयं शिक्षक बनने की जरूरत नही है बस किसी बोर्ड, विश्वविद्यालय, कॉंसिल के मान द्ण्ड पूरे कर दे। नोट छापने कीमशीन घर में लग जाएगी।
विकास के दूसरे चरण में शिक्षा का बाजारीकरण होना अभी बाकी है। भारत में तो अभी यह दौर आया है। यूरोप और अमेरिका के देशों में बाजार की जरूरत के अनुसार मानव संसाधन के विकास के लिए कॉर्पोरेट जगत शिक्षा को प्रायोजित करता ही है। इस समय वहाँ एक ईमानदार शिक्षा तंत्र खड़ा है जो आपको आपकी जरूरत के अनुसार नही बल्कि अपनी जरूरत के अनुसार ढाल कर अर्थतंत्र में भागीदार बना लेता है। ( भारत में तो अभी उद्योग जगत शिक्षा तंत्र को अपनी जरूरतों के लिए फण्ड करना सीख रहा है, लूट तंत्र से अपने लिए इस शिक्षा जगत को छीन लेना इनके लिए मजाक नही होगा, बहुत कीमत चुकानी होगी )
बाजारीकरण से मिली शिक्षा का आकर्षण अभी भारत में जाग रहा है। यहाँ का शिक्षा का उपभोक्ता अब सर्टिफिकेशन से संतुष्ट नही है। वह चाहता है कि उसे किसी काम का भी बनाया जाए, भले ही उद्योग जगत उसे अपना उपकरण बना ले। जिन्दा रहने के लिए उसे अभी आत्म सम्मान, स्वावलम्बन, समाज हित आदि की सही समझ नही है, सरोकार नही है। ये कथन भारत के लिए है। इंडिया के लिए नही। हा हा हा ...
विकसित देशों में अब अमीरी भोग चुकने के बाद लोग जीवन की सार्थकता पर विचार करने लगे हैं। उनको लगता है कि शिक्षा केवल बाजार के उपकरण के रूप में मनुष्य को ढालने का नाम नही है। उनको अब लग रहा है कि केवल आज्ञाकारी प्रबन्धक के रूप में जिन्दा रहने के लिए ही वे पैदा नही हुए हैं। अब वे एक ऐसी शिक्षा की वकालत कर रहे हैं जो किसी उद्योग विशेष की आवश्यकता की पूर्ति के लिए मनुष्य को ढालने वाली ना हो। वे ऐसी शिक्षा की वकालत कर रहे हैं जो सामुहिक जीवन के लिए मनुष्य को सोचने और जीने के लिए प्रेरित करें।
जाहिर है कि इस शिक्षा के लिए उद्योगपतियों से शिक्षा तंत्र को छुड़ाना होगा। भारत में अभी जहाँ उद्योगपति शिक्षातंत्र को अपने हितों के लिए अपनाना सीख रहा है विकसित देशों ने उस शिक्षा तंत्र का इस कदर उपयोग किया है कि अब समाज और सरकारें शिक्षा को उद्योगपतियों से मुक्त कराना चाह रही है। ताकि वैश्विक हित चिंतन के लिए मानव सोचना शुरू करे। तो जैसा कि मैंने आरम्भ में कहा भारत में अभी शिक्षा के बाजारीकरण की आवश्यकता है, इससे बचा नही जा सकता है। व्यावसायिक शिक्षा आज के शिक्षातंत्र की अनिवार्य आवश्यकता है। मूल्य के बदले पाई गई शिक्षा का उपभोक्ता को मूल्यांकन करना सीखना होगा। अन्यथा उनको सर्टिफिकेशन से ज्यादा और कुछ भी मिल नही रहा है।

बच्चे के सुखद भविष्य के लिए महीने में एक बार उसके स्कूल आप भी जाएं... ( अपने बच्चे के जन्म दिन पर इसे उसके नाम और फोटो सहित छपाएं )


प्रिय अभिभावक, 
आपके बच्चे स्कूल जाते हैं? बच्चों के जीवन के कीमती वर्ष, अपना बहुत सारा पैसा बिता कर आप तथा आपका बच्चा पाता क्या है? परीक्षाएँ पास कर लेने के बदले एक मार्कशीट? जिसमें लिखा होता है कि आपके बच्चे ने किस विषय में कितने अंक पाए? 

क्या आप जानते हैं कि इन अंकों का ये मतलब होता है कि जितने अंक आए हैं, इस वर्ष बच्चे ने जो निर्धारित पुस्तक पढ़ी है उस पुस्तक की उतना प्रतिशत विषय वस्तु की समझ आपके बच्चे को है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में अगर 100 में से 70 अंक आए हैं तो इसका अर्थ ये हुआ कि उसे अपनी पुस्तक का लगभग 70% भाग अच्छी तरह से समझ आता है। गणित में अगर 100 में से 82 अंक आते हैं तो इसका अर्थ होता है कि बच्चे को करने के लिए दिया जाए तो लगभग 82 प्रतिशत गणित वह कर के दिखा सकता है।

ज्यादा अंक आना इस बात का प्रमाण है कि आपके बच्चे को उन विषय की ज्यादा समझ है। यह मार्कशीट वैसे ही होती है जैसे एक किराणा व्यापारी बैग में 10 थैलियों में चीजें डाल कर हर वस्तु का नाम और वजन लिख कर आपको अलग से एक पर्ची पकड़ाता है। हर थैली में रखी वस्तु का नाम और उस थैली में रखी वस्तु का वजन लिखा हो तो आपको पूरा थैला देखना नही पड़ेगा। परंतु क्या कभी आप पर्ची पर भरोसा कर लोगे? या खोल खोल कर हर चीज की और उसके वजन की जाँच करोगे?

सोचिये, किसी दिन आपके घर के आगे एक गाड़ी आए। एक बड़ी सी बोरी जिसमें 5 किलो चीनी हो और बड़े बड़े अक्षरों में उस पर लिखा हो “वजन 100 किलो”। आकार इतना बड़ा कि आपके पड़ोसी भी पढ़ लें। वे भी आपके घर आई इतनी चीनी पर मुस्कुरा दें। क्या वजन पढ़ कर आप विक्रेता की तोली हुई 100 किलो चीनी मंजूर कर लेंगे? कम तोलकर ज्यादा दिखाने वाला दुकानदार अपना काम निरंतर करता जाए और ग्राहक 5 किलो तुली चीनी पर लिखे 100 किलो वजन को मंजूर करता जाए तो दुकानदार तो अमीर हो जाएगा परंतु जानबूझकर या अंजाने में ग्राहक को यह गलत आदत लग जाए तो वह बरबाद हो जाता है। 

कल्पना करें आपने बच्चे को 10 किलो चीनी लाने के लिए भेजा, वजन उठाने के आलस या डर से वह 4 किलो ही चीनी लेकर आए तो क्या आपको मंजूर होगा? दुकानदार से उसका समझौता हो जाए कि वह हर बार कम तुलवा कर ज्यादा लिखा लाए तो स्थिति आपके लिए और खतरनाक हो जाती है। स्कूल में बच्चा जब पढ़कर वर्ष के अंत में मार्कशीट लेकर आता है तो अच्छे नम्बर देख कर हम खुश हो जाते हैं। अक्सर मिठाई भी बाँटते हैं। अच्छे नम्बर लाने के नाम पर बच्चे अक्सर घर में ईनाम भी पाते हैं। बिना तोले जब आप किराणे के व्यापारी के दिए गये थैले पर विश्वास नही करते तो स्कूल की दी गई मार्कशीट पर विश्वास कैसे कर लेते हैं? 

भारत भर में आजकल स्कूलों में इस तरह की भारी ठगी चल रही है। अपने बच्चे के भविष्य के लिए आपको उन पर धन खर्च करने के अलावा और भी कदम उठाने होंगे। अन्यथा, अधिकाँश अभिभावक आज विद्यालयों में ठगे जा रहे हैं। चौकस अभिभावक भी आजकल इतना भर कर रहे हैं कि घर पर उसकी देखभाल करने के लिए अतिरिक्त धन और समय खर्च कर रहे हैं। ये वैसे ही है जैसे सिनेमा हॉल में टिकट कटा कर तीन घण्टे बरबाद भी करें और पिक्चर भी नही देखें। रास्ते में आते हुए उस पिक्चर की एक डीवीडी पर पैसा खर्च करें और घर पर तीन घण्टे और बरबाद करें। 

बाजार की चीजें खरीदते हैं तो कम तोलकर ज्यादा लिखने पर आप दुकानदार के पास शिकायत के लिए जाते हैं। हैरानी की बात है कि स्कूल में आपके बच्चे को कम पढ़ाकर ज्यादा अंक दे दिये जाने पर खुश होते हो कभी शिकायत भी नही करते। कम तुले पर अधिक की पर्ची चिपकी देख कर आप खुश हो तो कौन अध्यापक आपके बच्चे को झूठे नम्बर देकर वजन नही बढ़ा देगा?

बोर्ड की परीक्षाओं और विश्वविद्यालयों में भी जान छुड़ाने के लिए परीक्षा कॉपियों में अधिक नम्बर दे दिये जाते हैं। क्या आप साहस करोगे कि उपभोक्ता अदालतों में ऐसे मामले लाकर शिक्षातंत्र पर सवाल उठा सको? इन तथ्यों पर आप खुद विचार करें और अन्य अभिभावकों को भी सोचने के लिए प्रेरित करें। धन्यवाद। 

सुरेश कुमार शर्मा, मनोविश्लेषक 

ई – 144, अग्रसेन नगर,

चूरू 331001 9929515246

स्कॉलरशिप और मानद उपाधियों का खेल ...

बाजार में उत्पाद या अन्य सेवाओं पर मिलने वाली छूट को डिस्काउण्ट कहते हैं । इसी प्रकार किसी शिक्षण संस्थान या शिक्षक द्वारा अपने कार्य पर दी जाने वाली छूट को स्कॉलरशिप कहते हैं। मान लीजिये किसी शिक्षक ने अपने अध्यापन कार्य की फीस सालाना 10, 000 रूपये तय की हुई है। जब किसी छात्र का उसकी कॉचिंग में पंजीयन होता है तो उसकी मेरिट, जाति, आय आदि के आधार पर कॉचिंग का मालिक शिक्षक उसे जितनी छूट देना चाहता है उस राशि का एक अलग से आवेदन पत्र भरा लेता है। जितनी राशि का ये आवेदन भरा जाता है, कुल आवेदनों में  दी गई इस प्रकार की छूट का योग स्कॉलरशिप कहलाता है। बड़े बड़े शिक्षण� संस्थानों द्वारा जब अपने विज्ञापनों में इस राशि का स्कॉलरशिप वितरण के रूप में उल्लेख किया जाता है तो अभिभावक और विद्यार्थियों के लिए यह आकर्षण का केन्द्र बन जाता है। 
इसी प्रकार से मानद उपाधियों का खेल समझना चाहिए। बाजार में जिस प्रकार निर्माता अपनी दवाइयाँ सैम्पल के रूप में चिकित्सकों को बाँटता है या कोई अन्य उत्पादक किसी दूसरे उत्पाद के साथ अपना उत्पाद फ्री देता है तो वह अपने उत्पाद का प्रचार कर रहा होता है। इसी प्रकार समाज के प्रतीष्ठित व्यक्तियों को उनके जीवन भर के अनुभव या उपलब्धियों के आधार पर कोई विश्वविद्यालय डॉक्टरेट या एसोसिएट की मेडल देता है तो समाज में उस विश्वविद्यालय की पहचान बन जाती है। वे अपने विश्वविद्यालय की पहचान उस नामचीन आदमी से जोड़ कर स्कूल कॉलेजों में बच्चों के सामने प्रजेंटेशन दे कर अपने वहाँ आगे का अध्ययन के लिए प्रेरित करते हैं। 
भारत में स्कॉलरशिप (डिस्काउण्ट) और उपाधियों (सैम्पल) का दौर अभी शुरू ही हुआ है। सरकार चाहे तो बाजार के इन तौर तरीकों को बढावा दे कर निजी क्षेत्र में लगे शिक्षकों को भीषण शोषण से बचा सकती है। योग्य व्यक्तियों को शिक्षा क्षेत्र में रोक सकती है। अन्यथा यहाँ तो हाल ये है कि किसी युवक के पास ऑप्शन हो की ट्रैफिक पुलिस की नौकरी और विध्यालय में टीचर होना दो में से किसी एक का चुनाव करना हो तो वह दिल्ली के किसी व्यस्त चौराहे पर अपनी ट्रैफिक पुलिस की ड्यूटि लगवाना पसन्द करेगा। 

पहचान का संकट खाए जा रहा है...

एक्रेडिशन, ऑथोराइजेशन, रजिस्ट्रेशन, एफिलिएशन, सर्टिफिकेशन ... UGC, State Board, Center Board, AICTE, DDE और इनके आपस के झगड़े... हे भगवान। फिर शिक्षा मंत्रालय का इन झगड़ों के निपटाने के लिए एक नया आयोग, कमेटी, जॉइंट कमेटी बनाना। उस कमेटी, आयोग को स्थाई दर्जा दे देना। आपको लगता नही कि ये एक घोर षड्यंत्र है?

पहचान का संकट शिक्षा में सब जगह व्याप्त है। शिक्षा के उपभोक्ता को सरकार ने इतना आतंकित कर रखा है कि बेचारा दो अक्षर सीखने के लिए पाँच पैसा खर्च करते समय भी काँप जाता है। लगता है कि जैसे सीखने वाला किसी से अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कहीँ पैसे दे देता है तो सिखाने वाला और सीखने वाले दोनों कोई राष्ट्रद्रोह कर रहे हैं।

मिंया बीबी राजी तो क्या करेगा काजी। जैसी कहावत भी अब बेकार हो रही है... एक दुकान किसी को कोई हूनर बेच रही है, उसे जो कुछ आता था लिख कर दे दिया कि मैं सर्टिफाइ कर रहा हूँ कि ...... ने ..... दिन में ..... अमुक कॉर्स पूरा कर लिया है। तो उन लोगों को बेचैनी हो जाती है जो किसी को सर्टिफाइ करने के लिए ठेका लिए हुए हैं। फिर एक आदमी को उसकी दुकान में असंतुष्ट रहने के लिए ही भेजा जाता है। कोर्ट केस होता है। दुकान बन्द करा दी जाती है।

आखिर ये पहचान और उस पहचान पत्र को जारी करने वाली ठेकेदारी किसी नागरिक को दे क्या रही है? बन्द कमरों में से चर्चाएं बाहर निकल कर आती है कि जवान होती भीड़ को कॉर्स करने के नाम पर अटकाए रखो, अगर ये भीड़ उग्र हो गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे। जिस किसी तरह से ये धीरज से अपनी आयु की 25वीं देहली पार करले तो इसका गुस्सा शांत हो जाएगा। फिर दो वक्त की रोटी के लिए कहीं मरता खपता रहेगा।

औपचारिक शिक्षा संस्थानों की तुलना आप एक ऐसे स्टोर से करें जिसमें मालिक, नौकर मिल कर उपभोक्ता को एक अच्छा पैकिंग का डिब्बा देने, डिलिवरी सुपूर्दगी के सैकड़ों आपसी प्रमाणक (जिससे सब एक दूसरे पर माल की पूर्ति की गारण्टी की जिम्मेदारी डाल सकें) तैयार करने में समय, संसाधन खर्च कर देते हैं।

विद्यार्थी (ग्राहक) को सैम्पल मात्र दिखा कर अच्छा पैसा झटक लिया जा रहा है। सत्र पूरा हो जाता है और ग्राहक को मिलता है बाबाजी का ठुल्लू ( जैसे कॉमेडी सीरियल में कपिल देता है)।

अनौपचारिक शिक्षा संस्थान समाज को अपनी जिम्मेदारी पर खड़े करने चाहिए। भले ही आपको मान्यता प्राप्त पैकिंग प्रमाण पत्र ना मिले पर माल तो मिलेगा ना अपनी पसन्द का ?