गाइडेंस और कॉंसलिंग से आप बदलते सामाजिक पर्यावरण में तेजी से समायोजित हो सकते हो...

गाइडेंस और कॉंसलिंग से आप बदलते सामाजिक पर्यावरण में तेजी से समायोजित हो सकते हो...

गाइडेंस और कॉंसलिंग से सहायता वे लोग बेहतर विकास कर सकते हैं जो आत्म मुल्यांकन करना जानते हैं। स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों में तो नष्ट की जा रही है। परीक्षा प्रणाली के चरण इस प्रकार होने चाहिए ... स्व मुल्यांकन ( सीखने के लिए दिये गये लक्ष्य को हासिल करने में कितनी सफलता मिली है इसकी पहचान करना बच्चे को आनी चाहिए), पारस्परिक मुल्यांकन ( अपने मित्र से चर्चा करके वह अपने द्वारा प्राप्त किये गये लक्ष्य का आकलन कराना सीखे), शिक्षक/अभिभावक मुल्यांकन तीसरा चरण होना चाहिए ( अपने द्वारा दिये गए काम का परीक्षण करने से पहले बच्चे को प्रेरित करे कि वह पहले के दो चरण पूरे कर के आप से सम्पर्क करे), बोर्ड/विश्वविद्यालय या प्राचार्य मुल्यांकन तो पंच फैसले की तरह से होना चाहिए। जो लोग स्व मुल्यांकन की यह प्रवृति विद्यालयों से बचा कर ले आते हैं वे ही आगे बढ़ने के लिए किसी की सहायता का अनुभव करते हैं। मनोपरामर्श के बारे में एक धारणा समाज में गलत बैठी हुई है कि यह तो केवल पागलों के लिए आवश्यक चिकित्सा है। दरअसल इसे कार की मैकेनिक वर्कशॉप और कार ड्राइविंग के स्कूल के रूप में देख कर समझा जा सकता है। जब आप परामर्श चाहते हैं तो इसका अर्थ है कि कार चलाना सीखने की तरह ही आप अपनी क्षमताओं, रुचियों, आवश्यकताओं में तालमेल बैठाने के लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह ले रहे हैं। मनोचिकित्सा का अर्थ है जैसे कि कार खराब होने पर आप उसे वर्कशॉप में ले कर जा रहे हैं। अब एक बात स्पष्ट समझ आ जाती है कि आप स्वयं अगर किसी मनोपरामर्शक के पास जा रहे हैं या किसी अच्छे मनोपरामर्शक के लिए मित्रों से सलाह कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि आपकी गाड़ी सही है और उसे ठीक से चलाना सीखने के लिए आपको प्रशिक्षक की आवश्यकता है जो दुर्भाग्य से आप को शिक्षण काल में नही मिल रहा है जो आप का अधिकार था। अब इस प्रक्रिया को चरण बद्ध रूप से इस प्रकार समझ सकते हैं... ■आप अनुभव करते हैं कि आपको सहायता की आवश्यकता है। ■आप किसी अच्छे परामर्शक से स्वयं सम्पर्क करते हैं या किसी मित्र से सलाह माँगते हैं कि किसकी सहायता लेनी चाहिए। ■आप अनुमान करते हैं कि परामर्शक के साथ आपके सम्बंध किस प्रकार के बनेंगे। ■जब आप परामर्शक से मिलते हैं तो अपनी जरूरतें शेयर करते हैं, भावुक भी हो जाते हैं। ■इस सत्र में आप अपनी आवश्यकता को भाषा में व्यक्त करना सीख लेते हैं कि आप स्वयं से क्या चाहते हैं। अनावश्यक तनाव, चिंता, भय दूर हो जाते हैं। ■हो सकता है कि आपके अतीत से कोई समस्या के कारण निकल कर आए और उसके लिए कुछ अभ्यास करने पड़ें। ■अपनी जरूरत और समस्याओं के प्रबन्धन के विषय में आपके मन में एक स्पष्ट तस्वीर बन जाती है जिस पर आप आश्वस्त हो कर काम कर सकें। ■बद्लाव के प्रति आप चिंतित हो सकते हैं उसका प्रबन्धन करने के लिए आपको परामर्शक आश्वस्त करता है कि जीने की नई शैली आपको किस प्रकार वर्तमान अनुचित वातावरण से मुक्त कर सकती है। ■अब आप परामर्शक की सलाह पर कुछ अभ्यास आरम्भ करते हैं और बदलाव का अनुभव होने लगता हैं। ■अंतिम चरण में आप अपनी समस्याओं को स्वयं हल करने लगते हैं और परामर्शक की आवश्यकता का अनुभव नही करते। ये वैसे ही है जैसे कि बच्चे को चलना सिखाने के लिए कुछ समय के लिए सम्भाल कर रखना पड़ता है फिर वह सारी उम्र अपना चलना सीखा हुआ भूल नही सकता।
सुरेश कुमार शर्मा 9929515246