आरक्षण का अनकहा पहलु...

अगर मैं देश का उद्योगपति होता, प्रमुख उद्योगपति होता जिसके सहयोग बगैर सरकार का टिका रहना असम्भव होता तो मैं भी आरक्षण जैसे माध्यम से ही शासन तंत्र को कमजोर कर देता, जिम्मेदार पदों को कमयोग्य व्यक्तियों के लिए आरक्षित कर देता। खेमका या दुर्गाशक्ति जैसी सोच के लोग अगर सब जगह पहूँच जाते तो? कल्पना मात्र से मन सिहर उठता है। आरक्षण की नीति से पिछड़े के विकास का मेरा क्या लेना देना? अगर सचमुच ही कुछ लेना देना होता तो अब तक करवा नही दिया होता? अरे प्रोमोशन में आरक्षण, नियुक्तियों में आरक्षण की ये सब नीतियाँ इस लिए है ताकि मेरे कामकाज पर सवाल उठा सकने वाले योग्य अधिकारियों को सबीज नष्ट कर दूँ। देश का मुश्किल से उपलब्ध योग्य मानव संसाधन भला देश चलाए ये मैं कैसे बर्दास्त कर सकता हूँ? उनको तो मेरे उद्योगधन्धों की सरकार से रक्षा करने के लिए जरूरत है। अपने ही खिलाफ योग्य नीति निर्माताओं, कर संग्राहकों की फोज खड़ी कर लूँ? ना, भाई ना। राजनीति में पढे लिखे नागरिकों को चुन कर आने की जरूरत? क्यों मेरी ही कब्र अपने ही हाथों खुदवाना चाहते हो? भला प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व मेरा ना होग तो क्या मुर्खों के देश का होगा? मुंशी प्रेमचन्द की लिखी “नमक का दरोगा” कहानी के निहितार्थ मैंने ही तो समझे हैं, जन साधारण को समझने की क्या जरूरत है? 
मेरे जैसा बेरोजगार आदमी भी जब इतनी दूर की सोच सकता है तो क्या स्थापित उद्योगपतियों का कबीला मेरे से कम समझदार है?

शिक्षा पर चर्चा का खुला मंच बनें...

मेरी राय में शिक्षा के उपभोक्ता अर्थात् विद्यार्थी और उसके लिए धन खर्च करने वाले अभिभावक के लिए किसी पोर्टल पर शिक्षाविदों, अधिकारियों से आवश्यक चर्चा की व्यवस्था नही होगी तो शिक्षा सुधार के सम्वाद चल पाना कठिन होगा। ये तो वैसे ही हुआ जैसे खिलाड़ी अभ्यास के लिए डमी के साथ खेल रहा हो। असली परीक्षा तो मैदान में होती है। स्कूलों का ढाँचा भी कमोबेश ऐसा ही है बच्चों की प्रश्न पूछने की क्षमता नष्ट कर दी जाती है, आज्ञा पालन की क्षमता की परीक्षा होती है। भला कोई क्रिकेटर अपने ही हाथ से उछाली गेन्द पर खेलता रहे तो उसे क्रिकेट मैच कहेंगे क्या? कोई पहलवान अगर अपने शिष्य से अपने ही बताए दाँव पर सुरक्षित खेले, जीते और शेखी बघारता रहे तो वह अपने शिष्य के साथ दगा ही कर रहा है। कक्षा में आज शिक्षक बच्चे के पूछे प्रश्न का जबाब देने की स्थिति में भी नही है। बस अखाड़े पर कब्जा जमाए बैठे हैं। हर शिष्य बाहर की दुनिया में फैल है। मजे की बात है कि सरकार इन पहलवानों को संरक्षण भी दे रही है...

What is BPL in India?

गरीबी रेखा का निर्धारण अनेक मनघड़ंत आँकडों के आधार पर किया जाता है और नतीजे हास्यास्पद होते हैं। लगता है जैसे किसी ऐसे राज में जी रहे हैं जो कहानियों में सुनते थे... "अन्धेर नगरी चोपट राजा, टके सेर भाजी और टके सेर खाजा" क्यों ना इस बार राजनैतिक दलों को अपने मैनीफेस्टो में इसके लिए एक नई परिभाषा डालने के लिए बाध्य किया जाए... मेरा सुझाव इस प्रकार है... किसी भी राज्य अथवा केन्द्र शासित प्रदेश के राजक...ीय कर्मचारी के न्यूनतम वेतनमान का स्तर उस राज्य अथवा केन्द्र शासित प्रदेश की गरीबी रेखा निर्धारित किया जाना चाहिए। प्रति वर्ष नये पे स्केल पर कर्मचारियों की नियुक्ति होती है, आमतौर पर जिन्हें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी कहा जाता है उसको देय आरम्भिक वेतनमान गरीबी रेखा होने के बारे में आपकी क्या राय है? अगर पाठक इस बात से सहमत हों तो इसे अपनी वाल पर शेयर कर आगे फॉर्वार्ड करें और विभिन्न राजनैतिक दलों के चुनाव घोषणा पत्र तैयार करने वाले सदस्यों के पब्लिक प्रोफाइल पर पेस्ट करें। लिखित आवेदन करें तो यह एक जन जागरण का उपयोगी कार्य हो सकता है ....

Marketing v/s Education...

Marketing of education is suicidal to market and Education of marketing is suicidal to education. Education liberate while market enslave. Motto of Education - सा विद्या या विमुक्तये and Market - Never provide permanent or long term solution to your customer for maximization of profit....


"Never provide a permanent or long term solution to your customer for maximization of profit. अपने लाभ अधिकतम करने के लिए ग्राहक को कभी भी स्थाई और दीर्घकालीन समाधान मत दो।" औद्योगिक संघों की इस विश्वव्यापी नीति का शिकार हमारा जीवन दुनिया भर की सरकारों द्वारा स्वीकार्य है। जब बाजार के इस दर्शन को सरकारें सुरक्षा करती है तो उन सरकारों के मुँह से इंक्लुसिव ग्रोथ की बात सुनना अजीब सा लगता है। समझ नही आता कि कैसे ये सरकारें पर्यावरण नीति सामुहिक हित के लिए बना सकती है? कैसे इनका शिक्षा और स्वास्थ्य दर्शन जन हित का हो सकता है? न्याय और व्यवस्था का आडम्बर तो कभी खत्म ही नही हो सकता।...

शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग कर रहे भामाशाहों से मेरा सवाल है ... गौ भक्त द्वारा गौशाला में चारे के लिए भेजे पैसे से अगर चारा ना खरीदा जाए... माफिया की तरह जमीन खरीदने में चारा का पैसा फूँक दिया जाए या गौशाला की दीवारें सोने की बना दी जाए तो क्या गौभक्ति पूरी हो जाएगी? अन्दर गौपालन के स्थान पर कसाई चाहे गौ कत्ल में लगा हो?
 आप खुश हो जाओगे? नही तो ... जरा शिक्षा के बारे में भी सोचो... जिस तरह उत्तम गाय के बिना या गायों के उत्तम रख रखाव के बिना गौशाला अधूरी है उसी प्रकार उत्तम शिक्षक और शिक्षक के उत्त्म रख रखाव के बिना विद्यालय भी अधूरे हैं। बच्चों की पढ़ाई के लिए फीस ( चारे का पैसा ) देने वाले अभिभावक भी जरा विचार करें।...


कॉलेजों में इस तरह की कार्य संस्कृति का विकास करना होगा कि वहाँ से निकला स्नातक रोजगार माँगे नही बल्कि कुछ लोगों को रोजगार दे सकने में सक्षम हो जाए। उच्च माध्यमिक विद्यालयों में इस प्रकार की कार्य संस्कृति का विकास करना होगा कि किशोर अपने बुत्ते उच्च शिक्षा के लिए धन अर्जित कर सके। इस आधारभूत शिक्षा व्यवस्था की स्थापना के लिए जो विरोध और बदलाव करने पड़ें करने चाहिए। इसके लिए प्रतिरोध को अराजकता कहा जाए तो ये अराजकता शुभ है।...


जिस देश में शिक्षक का एंडोर्समेण्ट होने लग जाएगा, शिक्षक स्पोंसर्ड लाइफ जीने लग जाएगा वह देश विश्व गुरु बन जाएगा। विश्व गुरू होना भारत की बपोती नही रह गई है। जो विश्वगुरू होगा वही भारत है। इस देश में अब क्रिकेटर, सिनेमा स्टार, नर्तक और गायक एंडोर्समेंट प्राथमिक आधार पर हो रहे हों तो इसके विश्वगुरू रहने के आसार कितने है?...

It is time to amend organizational structure of School/College Body.

भारत में व्यावसायिक स्वामित्व के प्रारूप में इन दिनों भारी बदलाव आए हैं। लिमिटेड लायबिलिटी पार्टनरशिप (एलएलपी) और वन परसन कम्पनी (ऑपीसी) व्यवसाय में स्वामित्व के भारत में नये स्वरूप हैं। अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढाँचे में आए बदलाव का ये नतीजा है। शिक्षण संस्थानों में उत्पन्न ढाँचागत दोषों के कारण शिक्षा जैसे सम्वेदनशील काम में लगने के इच्छुक नागरिक चाह कर भी अपनी इच्छा पूरी नही कर पाते। ऐसे में एलएलपी और ओपीसी की तर्ज पर टीम वर्क अथवा अकेले शिक्षा क्षेत्र में काम करने के इच्छुक लोगों के लिए सरकारी नीतियों में बदलाव करने की आवश्यकता है जिससे कि वे समाज को उपयुक्त सेवाएं देकर सामाजिक बदलाव में सहयोगी की भूमिका निभा सकें, अपनी रुचि का काम करने के लिए आगे आएं और एंटरप्रेन्योरशिप का प्रदर्शन कर सकें। विद्यालयों में उपलब्ध भौतिक संसाधनों और उनकी उपयोगिता की वास्तविकता से सब भली भाँति परिचित है। इन विशाल परिसम्पतियों की आवश्यकता की आड़ में अब शिक्षा के वर्तमान ढाँचे को बनाए रखना समाज द्वारा अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा। एक व्यक्ति को अथवा व्यक्तियों के समुह को एलएलपी या ओपीसी की तर्ज पर पूर्ण विद्यालय का दर्जा दिया जाना चाहिए। संसाधनों की शर्त रखने के बजाय केवल मुल्याँकन परिषदों का गठन कर इच्छुक विद्यार्थियों के प्रमाणीकरण का काम करने का मार्ग खोलना चाहिए।