फेसबुक पर फैली कुछ चर्चाओं के अंश...

समाचार चैनलों पर भारत में इन दिनों एक खास तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाने लगा है जो खतरनाक है। अपराधों को एडजेक्टिव लगा कर परोसा जा रहा है जिसका उद्देश्य समाज में जानबूझ कर वर्ग विभाजन करना है। एक बानगी देखिए ... अमुक प्रांत, अमुक जाति के व्यक्ति की हत्या, अमुक पार्टी के नेता पर आरोप ... संगीत की धुन पर अपराध को कथा के रूप में परोस कर दर्शकों की ब्रेन मैपिंग किसी खास एजेण्डा को पूरा कर रही है और यह शुभ नही है। तथाकथित सच के उपासक मीडिया हाउस आने वाले इतिहास में सबसे बड़े अपराधी के रूप में याद किए जाएंगे। समय रहते अगर इन पर अंकुश नही लगता है तो ये भारत के लिए शुभ नही है ..

ये समय पार्टियों की लड़ाई का नहीं है, कार्यकर्ता का अपने नेता के आचरण पर सवाल उठाने का है| क्यों कि सब पार्टियों के नेता एक तरफ है और कार्यकर्ता एक तरफ जो एक दूसरे के नेता पर सवाल उठा रहे है । अपना पेट भर जाने के लालच से चुप हो कर अगर कोइ अपने नेता से सवाल करना बंद कर दे तो वह कार्यकर्ता नहीं हो सकता...

राष्ट्रीय संगठनों का आचरण सन्दिग्ध हो गया है... संगठनों में एक संस्कृति काम करती है, जो विचित्र है और खतरनाक है। इन संगठनों में जब सामुहिक हस्ताक्षरों द्वारा समर्थित विचार नीचे से उपर जाते हैं तो उपर बैठे लोग नतीजा निकालते हैं कि एक दो लोगों ने बर्गला कर बाकी सब लोगों से हस्ताक्षर करवा लिए हैं, पत्र पर कार्यवाही की जाने की आवश्यकता नही है। अच्छे विचारों के खिलाफ भी योजना ये बनाई जाती है कि जो आवाज उठाने वाले कार्यकर्ता हैं उनको एक एक करके योजनाबद्ध ढ़ंग से किनारे कर दिया जाता हैं।  परंतु उपर से नीचे जब कोई आदेश आता है तो उसके औचित्य की परख किये बिना उसकी पालना की अपेक्षा की जाती है। उचित अनुचित आज्ञाओं के पालन को ही अनुशासन कह दिया गया है। आदेश पर हस्ताक्षर करने वाले लोग जिस समिति द्वारा चुने जाते हैं उस समिति के अन्य सदस्यों से विचार विमर्श के बिना अथवा कई बार तो जान बूझ कर दबाव से ऐसे आदेश पारित किए जाते हैं जो तानाशाही की हद हो जाती है। इस के परिणाम बुरे हो रहे हैं... सत्ता धारी लोग योग्य व्यक्तियों के स्थान पर प्रिय व्यक्तियों को अपने आस पास चुनने लगते हैं। नतीजा? योग्य व्यक्ति किनारा होने लग जाते हैं। प्रिय व्यक्तियों की सहमति से अपार्दर्शी ढ़ंग से अतार्किक, अदूरदर्शी, दिशाहीन निर्णय लिए जाने लगते हैं जो संगठन को लूँजपूँज बना देते हैं। फिर मिटिंगों में बैठ कर रोना रोया जाता है कि सामाजिक कार्य में लोग आगे नही आते हमें अकेले काम करना पड़ रहा है।...

शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग कर रहे भामाशाहों से मेरा सवाल है ... गौ भक्त द्वारा गौशाला में चारे के लिए भेजे पैसे से अगर चारा ना खरीदा जाए... माफिया की तरह जमीन खरीदने में चारा का पैसा फूँक दिया जाए या गौशाला की दीवारें सोने की बना दी जाए तो क्या गौभक्ति पूरी हो जाएगी? अन्दर गौपालन के स्थान पर कसाई चाहे गौ कत्ल में लगा हो?
 आप खुश हो जाओगे? नही तो ... जरा शिक्षा के बारे में भी सोचो... जिस तरह उत्तम गाय के बिना या गायों के उत्तम रख रखाव के बिना गौशाला अधूरी है उसी प्रकार उत्तम शिक्षक और शिक्षक के उत्त्म रख रखाव के बिना विद्यालय भी अधूरे हैं। बच्चों की पढ़ाई के लिए फीस ( चारे का पैसा ) देने वाले अभिभावक भी जरा विचार करें।...


कॉलेजों में इस तरह की कार्य संस्कृति का विकास करना होगा कि वहाँ से निकला स्नातक रोजगार माँगे नही बल्कि कुछ लोगों को रोजगार दे सकने में सक्षम हो जाए। उच्च माध्यमिक विद्यालयों में इस प्रकार की कार्य संस्कृति का विकास करना होगा कि किशोर अपने बुत्ते उच्च शिक्षा के लिए धन अर्जित कर सके। इस आधारभूत शिक्षा व्यवस्था की स्थापना के लिए जो विरोध और बदलाव करने पड़ें करने चाहिए। इसके लिए प्रतिरोध को अराजकता कहा जाए तो ये अराजकता शुभ है।...

Marketing of education is suicidal to market and Education of marketing is suicidal to education. Education liberate while market enslave. Motto of Education - सा विद्या या विमुक्तये and Market - Never provide permanent or long term solution to your customer for maximization of profit....


फोर्ड कार निर्माता अपनी सीटों के लिए जिस लेदर का इस्तेमाल करता है उस लेदर पर कोई खरोच ना हो इसके लिए वह अपने फार्म पर खुद उच्च क्वालिटी की देखरेख में पशु पालन करता है। सम्भावित स्नातकों की आरम्भिक शिक्षा दीक्षा पर क्या एक विश्वविद्यालय को कोई सहयोग नही करना चाहिए?  ....

कॉलेजों में इस तरह की कार्य संस्कृति का विकास करना होगा कि वहाँ से निकला स्नातक रोजगार माँगे नही बल्कि कुछ लोगों को रोजगार दे सकने में सक्षम हो जाए। उच्च माध्यमिक विद्यालयों में इस प्रकार की कार्य संस्कृति का विकास करना होगा कि किशोर अपने बुत्ते उच्च शिक्षा के लिए धन अर्जित कर सके। इस आधारभूत शिक्षा व्यवस्था की स्थापना के लिए जो विरोध और बदलाव करने पड़ें करने चाहिए। इसके लिए प्रतिरोध को अराजकता कहा जाए तो ये अराजकता शुभ है।...

जिस तरह से बैक्टीरिया एंटीबैक्टीरिया से लड़ते लड़ते अपने भीतर प्रतिरोध शक्ति का विकास कर लेता है इसी प्रकार समाज में भी सत्ता की प्यासी चेतना जब एक बार चाणक्य का सामना कर लेती है तो अपने भीतर प्रतिरोध पैदा कर लेती है। इस देश में अब एक धनानन्द दूसरे धनानन्द के सामने खड़ा हो कर खुद को चन्द्रगुप्त के रूप में परिचय करा रहा है। अतीत के चाणक्य का पठन पाठन ऐसी नाव में बैठ करते रहना जिसमें आपके शत्रु सुराख कर रहे हों तो ये समयोचित कार्य नही है ....

"Never provide a permanent or long term solution to your customer for maximization of profit. अपने लाभ अधिकतम करने के लिए ग्राहक को कभी भी स्थाई और दीर्घकालीन समाधान मत दो।" औद्योगिक संघों की इस विश्वव्यापी नीति का शिकार हमारा जीवन दुनिया भर की सरकारों द्वारा स्वीकार्य है। जब बाजार के इस दर्शन को सरकारें सुरक्षा करती है तो उन सरकारों के मुँह से इंक्लुसिव ग्रोथ की बात सुनना अजीब सा लगता है। समझ नही आता कि कैसे ये सरकारें पर्यावरण नीति सामुहिक हित के लिए बना सकती है? कैसे इनका शिक्षा और स्वास्थ्य दर्शन जन हित का हो सकता है? न्याय और व्यवस्था का आडम्बर तो कभी खत्म ही नही हो सकता।...

जिस देश में शिक्षक का एंडोर्समेण्ट होने लग जाएगा, शिक्षक स्पोंसर्ड लाइफ जीने लग जाएगा वह देश विश्व गुरु बन जाएगा। विश्व गुरू होना भारत की बपोती नही रह गई है। जो विश्वगुरू होगा वही भारत है। इस देश में अब क्रिकेटर, सिनेमा स्टार, नर्तक और गायक एंडोर्समेंट प्राथमिक आधार पर हो रहे हों तो इसके विश्वगुरू रहने के आसार कितने है?...

भाषा और सत्ता का सीधा सम्बन्ध है, जिसके पास सत्ता है उससे सम्बन्ध बनाने के लिए हमें उसकी भाषा सीखनी होगी। अपनी भाषा की स्थापना करने के प्रयास नही करने सत्ताधीस बनना होगा जिससे लोग आकर्षित हो कर हमारी भाषा सीख सकें। बिल गेट्स ने सत्ता स्थापित की लोगों ने उसकी गलत अंग्रेजी को भी स्वीकार कर लिया। जब सत्ता बना ली जाती है तो सत्त्ता विस्तार के लिए भी हमें उस बाजार की भाषा सीखनी होगी जहाँ हम विस्तार चाहते हैं...


आन्दोलन जब संगठन का रूप ले लेते हैं तो वे केवल परम्परा भर का निर्वाह करते हैं। परिस्थितियाँ बदल जाती है पर वे आन्दोलन काल के रीति नीति का ही पोषण करते हैं। एक और बात संगठन एक नये विभाजन का शिकार हो जाता है... सम्पत्ति के ट्रस्टीगण अलग और विचार धारा से आकर्षण के कारण जुड़े साधारण कार्यकर्तागण अलग। ट्रस्टी लोग कई बार साधारण कार्यकर्तागण की संगठन शक्ति का दुर उपयोग भी करते हैं। अनुशासन के नाम पर कार्यकर्ताओं को कुछ कहने का भी हक नही होता
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