शिक्षा के बाजारीकरण पर बहस का ढोंग ?

एक छद्म बहस शिक्षा के क्षेत्र में चलती है कि शिक्षा का बाजारीकरण होना चाहिए या नही। इस बहस को वे लोग प्रायोजित करते हैं जो शिक्षा को लूट का तंत्र बनाए हुए हैं अथवा वे नादान जो इनके बहकावे में आते हैं। विकास की अवस्था की दृष्टि से अभी भारत की वर्तमान शिक्षा आकार ग़्रहण कर रही है। ( क्षमा करें नालन्दा, तक्षशीला के वकीलगण एकबार) जब कोई स्थिति आकार ले रही है तो अभी समाज में केवल स्कूलिंग सर्टिफिकेट का ही मूल्य है, शिक्षा का नही। ये वैसे ही है जैसे बचपन में हम बड़ों की मूछ देख कर खुद के लिए एक नकली मूँछ लगाते हैं। सर्टिफिकेट तंत्र से जुड़े लोग अब देश में ठीक से कमाने भी लगे हैं। आप डिग्री बोलिए वे मूल्य बता देंगे। प्रिंटिंग प्रेस आजकल अच्छे सर्टिफिकेट छाप देती है। बस इस सर्टिफिकेशन का अधिकार उन लोगों को है जो विभिन्न नियामक प्राधिकरणों की फाइलों का पेट उनके द्वारा माँगे गए कागजातों से भर देते हैं। जो लोग धन कमाना चाहते हैं उनको स्वयं शिक्षक बनने की जरूरत नही है बस किसी बोर्ड, विश्वविद्यालय, कॉंसिल के मान द्ण्ड पूरे कर दे। नोट छापने कीमशीन घर में लग जाएगी।
विकास के दूसरे चरण में शिक्षा का बाजारीकरण होना अभी बाकी है। भारत में तो अभी यह दौर आया है। यूरोप और अमेरिका के देशों में बाजार की जरूरत के अनुसार मानव संसाधन के विकास के लिए कॉर्पोरेट जगत शिक्षा को प्रायोजित करता ही है। इस समय वहाँ एक ईमानदार शिक्षा तंत्र खड़ा है जो आपको आपकी जरूरत के अनुसार नही बल्कि अपनी जरूरत के अनुसार ढाल कर अर्थतंत्र में भागीदार बना लेता है। ( भारत में तो अभी उद्योग जगत शिक्षा तंत्र को अपनी जरूरतों के लिए फण्ड करना सीख रहा है, लूट तंत्र से अपने लिए इस शिक्षा जगत को छीन लेना इनके लिए मजाक नही होगा, बहुत कीमत चुकानी होगी )
बाजारीकरण से मिली शिक्षा का आकर्षण अभी भारत में जाग रहा है। यहाँ का शिक्षा का उपभोक्ता अब सर्टिफिकेशन से संतुष्ट नही है। वह चाहता है कि उसे किसी काम का भी बनाया जाए, भले ही उद्योग जगत उसे अपना उपकरण बना ले। जिन्दा रहने के लिए उसे अभी आत्म सम्मान, स्वावलम्बन, समाज हित आदि की सही समझ नही है, सरोकार नही है। ये कथन भारत के लिए है। इंडिया के लिए नही। हा हा हा ...
विकसित देशों में अब अमीरी भोग चुकने के बाद लोग जीवन की सार्थकता पर विचार करने लगे हैं। उनको लगता है कि शिक्षा केवल बाजार के उपकरण के रूप में मनुष्य को ढालने का नाम नही है। उनको अब लग रहा है कि केवल आज्ञाकारी प्रबन्धक के रूप में जिन्दा रहने के लिए ही वे पैदा नही हुए हैं। अब वे एक ऐसी शिक्षा की वकालत कर रहे हैं जो किसी उद्योग विशेष की आवश्यकता की पूर्ति के लिए मनुष्य को ढालने वाली ना हो। वे ऐसी शिक्षा की वकालत कर रहे हैं जो सामुहिक जीवन के लिए मनुष्य को सोचने और जीने के लिए प्रेरित करें।
जाहिर है कि इस शिक्षा के लिए उद्योगपतियों से शिक्षा तंत्र को छुड़ाना होगा। भारत में अभी जहाँ उद्योगपति शिक्षातंत्र को अपने हितों के लिए अपनाना सीख रहा है विकसित देशों ने उस शिक्षा तंत्र का इस कदर उपयोग किया है कि अब समाज और सरकारें शिक्षा को उद्योगपतियों से मुक्त कराना चाह रही है। ताकि वैश्विक हित चिंतन के लिए मानव सोचना शुरू करे। तो जैसा कि मैंने आरम्भ में कहा भारत में अभी शिक्षा के बाजारीकरण की आवश्यकता है, इससे बचा नही जा सकता है। व्यावसायिक शिक्षा आज के शिक्षातंत्र की अनिवार्य आवश्यकता है। मूल्य के बदले पाई गई शिक्षा का उपभोक्ता को मूल्यांकन करना सीखना होगा। अन्यथा उनको सर्टिफिकेशन से ज्यादा और कुछ भी मिल नही रहा है।