व्यक्तित्व
विकास की कक्षाओं के बाजार में आजकल उपभोक्ताओं को परोसे जाने वाले टूल उनके लिए
किसी काम के नही हैं। सारी कक्षाएं महंगी फीस लेकर जो कुछ परोस रही है वे उपभोक्ता
का दो-तीन घण्टे से लेकर दो-तीन दिन तक मनोरंजन तो कर देती है पर उनके जीवन में
कोई बदलाव ला सके ऐसा जादू कहीं दिखाई नही देता। ऐसा होने की कोई सम्भावना भी दूर
दूर तक दिखाई नही देती। कारण साफ है इन कक्षाओं के आयोजक या तो सरकार है या
उद्योगपति हैं। आप खुद सोचिये कोई व्यक्ति अथवा सरकार जब धन खर्चती है तो वह अपने
अधीनस्थों को क्या कोई ऐसा पाठ पढ़ाएगी जिससे उनके नेतृत्व के लिए चुनौती खड़ी हो
जाए? और आप अगर उनके गलत का विरोध करने के नैतिक साहस की कमी का अनुभव करते हैं तो
आपका व्यक्तित्व विकसित होगा या कुण्ठित होगा?
उनका
लक्ष्य है एक आज्ञाकारी प्रबन्धक तैयार करना। सरकार चाहती है कि आप जैसे प्रबन्धक,
पिरामिडनुमा संगठन में उपर से आए आदेश का आँख मूँद कर पालन करें। उसके औचित्य पर
सवाल ना उठाएं। जनसाधारण के साथ इस सीमा तक सहृदयता बरतना सीखें जहाँ तक वे
व्यवस्था के शोषकों की सीमा के बाहर हैं। अगर वे शोषकों के चेहरे पहचानने की कोशिश
करते दिखें तो उनको भ्रमित करने की जिम्मेदारी उठाएं। ना माने तो कुचल देने का
साहस होना चाहिए।
उद्योगपति
चाहता है कि आप उनके लिए एक ऐसे आज्ञाकारी प्रबन्धक बनें जो अधिकतम उपभोक्ता
जुटाने में मददगार हो। उत्पादन की गुणवत्ता, उपभोग के औचित्य या उपभोक्ता की
प्राथमिकता या हैसियत आप का विचारणीय विषय नही होना चाहिए।
ऐसे में
चालाक कर्मचारी तो समझदार होते हैं उनको पता है कि व्यक्तित्व विकास की कक्षाओं का
बजट मोजमस्ती के लिए होता है अत: वे इन कक्षाओं में खेलने, चुटकलेबाजी के लिए आगे
बढ कर भाग लेते हैं। जो लोग सचमुच इन कक्षाओं के लिए गम्भीर है वे या तो इन
कक्षाओं में निराश होकर लोटते हैं या वहाँ जो बताया जाता है ऐसा करने के अभ्यास पर
उनको प्रताड़ित किया जाता है तो वे कुण्ठित हो जाते हैं।
अगर वास्तव में ठीक से समझने की कोशिश करना हो कि
व्यक्तित्व का निर्माण या विकास कहाँ हो रहा है तो एक प्रभावशाली उदाहरण टीवी है।
टेलीविजन का स्वामित्व निजी क्षेत्र का है। किसी भी चैनल को उठाकर देख लीजिए आपको
दिनभर दो चीचें परोसी जाती है विरोध और भय। किसी कहानी या समाचार में विरोध नही है
या भय नही है तो ऐसी कहानी या समाचार टीवी चैनल के काम का नही है।
अगर किसी तरह से
इस टीवी के आक्रमण से बच जाते हो। साहस या सहकारिता जिन्दा रह जाती है तो सरकार या
उद्योगपति आपको अपने पाले में स्थान दे देते हैं। क्योंकि बेइमान व्यक्तियों और
संगठनों को भी साहसी और सहकारी लोगों की जरूरत होती है। पर नैतिकता की कसोटी उनकी
अपनी होती है। वे आपसे वफादारी की अपेक्षा करते हैं। आपको वहाँ आज्ञाकारी प्रबन्धक
के रूप में भरपूर रोटी मिलने लग जाती है।
वहाँ जा कर भी किसी को गलत दिखाई देता
है? नैतिकता जिन्दा है? तो फिर आपकी खैर नही है। कायर बन कर जब तक भीड़ में शामिल
थे तब तक आपकी थोड़ी बहुत इज्जत थी। परंतु जब प्रबन्धक के रूप में सरकार या
उद्योगपति के लिए काम कर लिया और उनकी नैतिकता पर सवाल उठा लिया तो वे आपको एक
अपराधी करार देकर समाज के सामने ऐसी तस्वीर आपकी बना देंगे कि आप समाज की नजर में
सबसे बड़े शैतान के रूप में दिखाई देने लगोगे।
जनसाधारण को कभी पता भी नही चलता कि
गलत कौन है और सही कौन है। टीवी या प्रभावशाली कानून जिसे साबित कर देता है वही
समाज के सामने बुरा या अच्छा होता है।