
शिक्षण संस्थाएं सरकारी हो या निजी ज्ञान से इनका कोई वास्ता नही रहा।

पूरा व्यवस्था तंत्र महज सूचनाओं का वाहक बन गया है।

निरर्थक और निरुपयोगी सूचनाएं।

एक बात सोचिए... सूचना कीमती है या सूचना का विश्लेषण करने की योग्यता?

निश्चित ही सूचना का विश्लेषण करने की योग्यता कीमती है।

अब जानिए कि देश के नागरिकों को सूचना का अधिकार बिल भी पिछले दशक में पास हुआ है। अर्थात आजादी के बाद अब तक देश के नागरिकों को सूचना का अधिकार भी नही था।

तो सूचना के विश्लेषण का अधिकार अर्थात ज्ञान का अधिकार आपको शिक्षण संस्थानों में मिल रहा है ये तो सोचना भी मूर्खता है।

सूचना का अधिकार भी केवल कागजों में मिला है। सूचना के अधिकार की वास्तविक मांग करने वाले 100s कार्यकर्ता देश में अब तक जान खो चुके हैं।

आपको इंटरनेट के नाम पर सूचनाओं का विराट तंत्र दिखाई दे रहा है इसे देख कर भ्रमित न हों।

ये तो वैसे ही है जैसे खारे पानी के समुद्र में आप नाव में सफर कर रहे है। नाव का मालिक पीने के पानी पर कब्जा किये बैठा है।

नाव के मालिक की तरह से दुनिया के चुने हुए लोगों ने पीने योग्य पानी अर्थात् उपयोगी सूचना पर अधिकार कर रखा है। उन सूचनाओं की मांग करने वाले यातो उपेक्षित है या खत्म कर दिए जाते है।

अब विचारिये क्या जनसाधारण को ज्ञान का अधिकार है?

शिक्षण संस्थानों में जो शिक्षा के नाम पर ड्रामा चल रहा है वह इस ड्रामे के वित्त पोषकों एजेंडा पूरा कर रहा है।

आप सोचिये जो वित्त पोषक तंत्र दुनिया के किसी एक कारखाने में बना मोबाइल बाजार के हर रिटेल स्टोर पर 10 दिन में पहुँचा देता है क्या उसकी नीयत ठीक हो तो वह दुनिया की 80% आबादी को सही शिक्षा नही दे सकती?

इस दुनिया में शिक्षा और स्वास्थ्य पर जितना श्रम और कोशल खर्च हो रहा है उससे हजारों गुना कौशल युद्ध उद्योग पर खर्च हो रहा है।

जिनकी रोटी और शिक्षा की मांग है वे पिघलते लोहे और बारूद के शिकार हो रहे हैं हर क्षण इस धरती पर।